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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
बडली ग्राम (ई.पू. पाँचवी सदी), में उपलब्ध शिलालेख तथा सम्राट अशोक के अभिलेखों और सम्राट खारवेल के उदयगिरि - खण्डगिरि के शिलालेखों की लिपि ब्राह्मी मानी गई है। पुरातत्वज्ञों के अनुसार खारवेल - शिलालेख के लगभग २ - ३ सौ वर्षों बाद तक उसका (ब्राह्मी लिपि का ) प्रचलन बना रहा। अतः यह कहा जा सकता है कि ईसा पूर्व पूर्वी सदी से ईसा की लगभग पहिली-दूसरी सदी तक ब्राह्मी लिपि अधिक लोकप्रिय रही । परवर्ती कालों में उसका क्रमिक विकास हुआ, जिसका प्रमुख रूप वर्तमानकालीन देवनागरी के रूप में प्रसिद्ध हुआ ।
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खरोष्ठी लिपि में पाण्डुलिपियाँ
पश्चिमोत्तर-सीमावर्ती भारत (वर्तमान में पाकिस्तान) में उपलब्ध सम्राट अशोक के कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि में भी उत्कीर्णित हैं। इतिहासकारों ने उनका अध्ययन कर बताया है कि प्राचीन काल में पारसकुल के देशों (Persian Gulf Countries) के साथ भारत के व्यापारिक सम्बन्ध थे। वहाँ के व्यापारियों के आगमन के साथ ही उनकी आरमाईक - लिपि, जो एक प्रकार से खरोष्ठी के समान थी, उसका प्रवेश भी भारत में हुआ। इस (आरमाईक-लिपि) में केवल २२ वर्णाक्षर थे । उसमें स्वरों की अपूर्णता और दीर्घ-हस्व का अभेद तथा स्वरों एवं मात्राओं का सदा अन्तर रहने के कारण वह मूल-भारतीय- साहित्य-लेखन के लिए अयोग्य सिद्ध हुई ।
चीनी - विश्वकोश में खरोष्ठी लिपि को खरोष्ठ नाम के एक भारतीय ब्राह्मण द्वारा आविष्कृत बताया गया है। बहुत सम्भव है कि उसे भारतीय - साहित्य के लेखन के योग्य बनाने हेतु कुछ संशोधन-परिवर्तन-परिवर्धन किसी ब्राह्मण विद्वान् ने किये हों ? चूँकि नन्द-मौर्ययुग में तक्षशिला प्राच्य भारतीय ज्ञान-विज्ञान के पठन-पाठन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण केन्द्र था, अतः यह असम्भव नहीं कि उक्त लिपि संशोधक खरोष्ठ नामक ब्राह्मण तक्षशिला विद्यापीठ का कोई प्राध्यापक रहा हो और परवर्ती कालों में उसी के नाम पर वह खरोष्ठ- लिपि के नाम से प्रसिद्ध हो गई हो ? वस्तुतः यह तो एक अन्वेषणीय विषय है । उस पर विशेष प्रकाश डाल पाना यहाँ सम्भव नहीं ।
खरोष्ठी लिपि (जो कि दाँई ओर से बाँई ओर लिखी जाती है) की लोकप्रियता अपनी कुछ खामियों के कारण भारत में बढ़ नहीं सकी। इस लिपि में भारत में सम्भवतः कोई पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं हुई है। बौद्धग्रन्थ - धम्मपद की एक पाण्डुलिपि अवश्य ही खरोष्ठी में लिखित मिली है। किन्तु वह तुर्किस्तान (Turkey ) के रेगिस्तान में उपलब्ध हुई है। बहुत सम्भव है कि उसका वहॉ खरोष्ठी में प्रतिलिपिकरण किया गया
हो?
किन्तु, जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, ब्राह्मी लिपि परवर्ती कालों में अनेक रूपों में विकसित होती रही।