Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

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Page 47
________________ २८ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख कर्नाटक के जैन शिलालेख जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के ससंघ कर्नाटक-प्रवेश के समय से कर्नाटक में श्रमण संस्कृति का पर्याप्त प्रभाव बढ़ा। महावंश जैसे बौद्ध-साहित्य में भी इसके प्रमाण मिले हैं कि आचार्य भद्रबाहु के पहले भी सिंहल - देश तक जैनधर्म का प्रचार था । भद्रबाहु ने अपने १२००० साधु-संघ के साथ कर्नाटक में जैनधर्म का अच्छा प्रचार किया। उनके बाद के कुछ वर्षों में उसके प्रभाव में कुछ कमी होने लगी थी ३७ । किन्तु सम्राट खारवेल ने अपनी विजय यात्रा से वह जैनधर्म को लोकप्रिय बना दिया । यह उसी की शक्ति थी कि उसने जैनधर्म के विरोध में बने सशक्त तमिल - संघात (United States of Tamil) को भी ध्वस्त कर दिया था ३८ 1 आचार्य भद्रबाहु के पहले दक्षिण भारत में किन-किन आचार्यों ने जैनधर्म का प्रचार किया था उनके नाम तो विदित नहीं हो सके किन्तु आचार्य भद्रबाहु, उनके महा-मुनि-संघ, तत्पश्चात् सम्राट खारवेल ने वहाँ जैसा वातावरण बनाया और उनके बाद भी आचार्य सिंहनन्दि एवं सुदत्त वर्धमान ४० ने जैन राजवंशों की स्थापना कर उस माध्यम से उस परम्परा को आगे बढ़ाकर श्रमण-संस्कृति एवं जैन साहित्य के विकास में जैसा योगदान दिया, उसके उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ हैं। यह उन पूर्व-महापुरुषों की ही देन है कि दक्षिणापथ के परवर्त्ती विभाजित प्रदेश - कर्नाटक का कण-कण जैन संस्कृति के इतिहास का जीवित इतिहास बन गया । विविध शिलालेखों एवं पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियों में वहाँ के बहुआयामी इतिहास को सुरक्षित किया जाता रहा और वही वर्तमान इतिहास-लेखन के लिए प्रकाश स्तम्भ बना हुआ है। कर्नाटक के जैन केन्द्र एवं महान् साहित्यकार उत्तर भारत ने भले ही तीर्थंकरों को जन्म दिया किन्तु उनकी मंगलकारी-वाणी को कर्नाटक के महामहिम आचार्यों, कवियों एवं लेखकों ने वहाँ के पुण्यात्मा श्रावक-श्राविकाओं के पूर्ण समर्पित सहयोग से लेखनी-बद्ध किया, वहाँ के राजाओं ने जैनधर्म को राज्याश्रय दिया और जैन-केन्द्रों-श्रवणबेलगोला, पोदनपुर, कोप्पल, पुन्नाड, हनसोगे, तलकाट, हुम्मच, वल्लिंगामे, कुप्पटूर एवं वनवासि की स्थापनाएँ कर न केवल जिनवाणी की प्राच्य पाण्डुलिपियों को सुरक्षित रखा, अपितु, परवर्त्ती आचार्यों, मुनियों, कवियों एवं ३७. विशेष के लिए देखिये - खारवेल - कालीन महारट्ठ-संघ एवं जैन-संस्कृति के विकास में उसका योगदान, ३८. हाथीगुम्फा शिलालेख पं. सं. ११ तथा उड़िसा - रिव्यू ( दिस. १६६८) पृ. १४ ३६. जैन शिलालेख संग्रह भाग १ पृ. ११० ४०. कर्नाटककविचरिते पृ. ६०

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