Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

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Page 113
________________ ८२ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख पं. महेन्द्रकुमार जी, पं. हीरालाल जी शास्त्री, पं. लालबहादुर जी शास्त्री, साहित्याचार्य पं.पन्नालाल जी, पं.परमानन्द जी, डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पं. सुन्दरलालजी, पं. दरबारी लाल कोठिया, डॉ.कस्तूरचन्द्र जी काशलीवाल, डॉ. राजाराम जैन, डॉ. देवेन्द्र शास्त्री, डॉ.विद्यावती जैन आदि जिनवाणी-समर्पित विद्वानों ने एकरस होकर साधनाभावों में भी जो शाश्वत-मूल्य के कार्य किये, उनसे जिनवाणी एवं समाज की प्रतिष्ठा शिखराग्रोन्मुख हुई है। भले ही उन्हें आज जैसे पुरस्कार नहीं मिले, प्रशस्ति-पत्र नहीं मिले, फिर भी उन्होंने उनकी परवाह किये बिना ही निरपेक्ष-भाव से जो निरुपम-कार्य किये और उससे उन्हें जो स्थायी आत्मसुख, धवलयश एवं कीर्ति मिली, वही उनके लिये सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार हैं। शाश्वत-कोटि के उनके श्रमसाध्य शोध-कार्य अगली पीढ़ी के लिये प्रकाश-स्तम्भ बनकर मार्ग-दर्शन करते रहेंगे, इसमें संदेह नहीं। सरस्वती-पुत्र की शताब्दी वर्ष की पुण्य-स्मृति में - श्रद्धेय पूज्य पं.फूलचन्द्र जी सिद्धान्त-शास्त्री का यह शताब्दी-वर्ष है। इस पावन-प्रसंग पर उनका गुणानुवाद करने में किस सहृदय विद्वान् को प्रसन्नता का अनुभव नहीं होगा? वे ज्ञान के ऐसे उज्ज्वल दीपक थे, जिन्होंने उसे निरन्तर प्रज्ज्वलित बनाए रखने के लिये अपनी युवावस्था की समस्त ऊर्जा-शक्ति की आहुति दे दी थी। स्वाभिमान की सुरक्षा के लिये जिये, भले ही उन्होंने स्थायी नौकरी छोड़कर परिवार को भूखा रखना पसन्द किया, लेकिन अपमानित होकर सुख-सुविधाएँ प्राप्त करना उन्होंने कभी पसन्द नहीं किया। उनकी यह मनस्विता, उनका यह स्वाभिमान-प्रेम, अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदन्त के स्वाभिमानी-जीवन का बरबस स्मरण करा देता है। उन्होंने जीवन भर अभावों का जीवन जिया किन्तु निराशा की रेखाएँ कभी भी अपने जीवन में न उभरने दी और ज्ञान का दीपक निरन्तर जलाये रखा । श्री धवल, जयधवल तथा महाधवल-टीका जैसे अति दुरूह टीका-ग्रन्थों के सम्पादन-कार्य के अतिरिक्त अन्य दर्जनों मौलिक-ग्रन्थ उसके साक्षात् उदाहरण हैं। ऐसे प्रातः स्मरणीय सरस्वतीपुत्र की पावन-स्मृति में उनके प्रिय विषय-प्राच्य-पाण्डुलिपियों के विषय में मुझे आज अपने विचार व्यक्त करने का सुअवसर मिला, इसे मैं अपना अहोभाग्य मानता हूँ तथा तद्विषयक अपनी यह भाषण-माला मैं उन्हीं की पावन-स्मृति में सादर समर्पित करता हूँ। सन् १६५६ से मैंने परमादरणीय प्रो.डॉ.वासुदेवशरण जी अग्रवाल, पं.हजारीप्रसाद जी द्विवेदी, पं.बलदेव उपाध्याय, पं.दलसुख मालवणिया, पं.फूलचन्द्र जी सि.शा., प्रो.डॉ. हीरालाल जी एवं डॉ.ए.एन.उपाध्ये जी की प्रेरणा से पाण्डुलिपियाँ के क्षेत्र में अपने कदम रखे थे। प्रारम्भ में तो मैंने कठिनाई का अनुभव किया किन्तु बाद में एतद्विषयक रुचि बढ़ती गई और आज मैं जो कुछ भी बन सका, यह सब उन्हीं पूज्य गुरुजनों के आशीर्वाद

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