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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
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से किसी अप्रकाशित जैन - पाण्डुलिपि का सम्पादन, अनुवाद एवं समीक्षा करना चाहे, तो उसे आकर्षक शोध-छात्रवृत्ति की व्यवस्था की जाए ।
केन्द्रिय समिति स्वयं भी एक शोध संस्थान की स्थापना करें, जो किसी विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त हो, जिसमें विविध स्तरों की पाण्डुलिपियों के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध की सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक व्यवस्था हो । रजिस्टर्ड रहने से उसके लिए प्रान्तीय तथा केन्द्रिय सरकारों से भी आर्थिक सहायता मिल सकेगी।
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रजिस्टर्ड होने के कारण उक्त संस्थान को यू.जी.सी. से विविध योजनाओं के लिए उत्साहवर्धक आर्थिक अनुदान भी मिल सकेगा ।
यह तय है कि उक्त कार्य अत्यन्त व्यय - साध्य, धैर्य-साध्य एवं समय-साध्य है तथा उसे कोई एक संस्था या व्यक्ति पूरा नहीं कर सकता। यह कार्य तो सभी के सम्मिलित सहयोग से ही सफल हो सकता है। किन्तु हमारा जैन समाज एक सुसंस्कृत, पुरुषार्थी एवं समृद्ध समाज है। वह प्रतिवर्ष नए-नए मन्दिर बनाने, मूर्ति प्रतिष्ठा करा तथा गजरथ चलाने में लाखों लाख रुपए खर्च करती है। प्रत्येक नगर एवं ग्राम का जैन समाज यदि प्रति दो वर्षों में एक-एक पाण्डुलिपि के प्रकाशन का जिम्मा ले ले, अथवा गजरथ, मन्दिर निर्माण एवं वेदी प्रतिष्ठा कराने वाले अपने-अपने बजट में से १–१ पाण्डुलिपि के प्रकाशन की भी उसी खर्च में से गुंजाइश निकाल लें, तो जिनवाणी के उद्धार में काफी सहायता मिल सकती है और हम अपनी परम आराध्य जिनवाणी की जीर्ण-क्षीर्ण पाण्डुलिपियों की कुछ सुरक्षा कर सकते हैं।
यह भी परमावश्यक है कि समाज में प्रतिदिन स्वाध्याय करने की प्रवृत्ति बढ़े, अपने-अपने घरों में जैन-ग्रन्थों को खरीदकर छोटा सा ग्रन्थागार बनायें तथा शादी-विवाह • पर तथा अन्य अवसरों पर बर्तनों एवं मिठाईयों के बदले जैन ग्रन्थों को भेंट स्वरूप दें तो उससे प्रकाशकों, लेखकों तथा सम्पादकों का भी उत्साहवर्धन होगा। इस प्रकार यह प्रवृत्ति भी जिनवाणी के उद्धार एवं प्रचार-प्रसार में सहायक सिद्ध होगी । पाण्डुलिपियों की खोज जितनी कठिन है, उससे भी
अधिक कठिन है उनका प्रकाशन
प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज जितनी कठिन है, उससे अधिक कठिन है उनका प्रतिलिपि-कार्य और उससे भी द्विगुणित कठिन कार्य है उसका अध्ययन, सम्पादन, अनुवाद एवं तुलनात्मक समीक्षा - कार्य और उसके प्रकाशकों की खोज तो अत्यन्त दुरूह ही । पाण्डुलिपियों पर कार्य करने के लिये इन सब कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। पाण्डुलिपियों के संशोधन कार्य में एकाग्रता एवं एकरसता की अनिवार्यता है । ४-५ घण्टे की एक लम्बी एकाग्र बैठक के बिना कुछ भी कार्य आगे नहीं बढ़ सकता । पाण्डुलिपि-सम्बन्धी कार्यों में संलग्न व्यक्ति प्रायः असामाजिकों की कोटि में आने लायक बन जाता है। इस दिशा में कार्य करने वाले प्रातः स्मरणीय मुनि पुण्यविजयजी, मुनि कल्याण विजयजी, मुनि जिनविजय जी, पं. नाथूराम प्रेमी, पं. जुगलकिशोर मुख्तार, प्रो. डॉ. हीरालाल जी, प्रो. डॉ. ए. एन. उपाध्ये, पं. फूलचन्द्र जी सि.शा. पं. कैलाशचन्द्र जी,