________________
६६
जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
तीसरी सदी) को अपने व्याकरण-महाभाष्य में स्पष्ट लिखना पड़ा था - "ग्रामे ग्रामे काठके कालापकं च प्रोच्यते ।" अर्थात् ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में कालापक (अर्थात् कातन्त्र-व्याकरण) का अध्ययन कराया जाता है।
प्रो. बेवर ने अपनी History of Sanskrit Grammar में कातन्त्र-व्याकरण का मूल्यांकन करते हुए कहा है कि - "जो व्यक्ति प्राकृत भाषा के माध्यम से संस्कृत भाषा सीखना चाहते हैं, उनके लिये कातन्त्र-व्याकरण सर्वाधिक उपयोगी है २ ।
उक्त कातन्त्र व्याकरण का सर्वप्रथम सम्पादन डॉ. सर विलियम जोन्स ने सन् १८०० ई. के आसपास किया था, जिसका प्रकाशन रायल एशियाटिक सोसाइटी बंगाल, कलकत्ता द्वारा किया गया ।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, उक्त ग्रन्थ का लेखक शर्ववर्म यद्यपि जैनाचार्य है ३ किन्तु पन्थ एवं साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से परे रहने के कारण देश-विदेश में सर्वत्र उसकी प्रतिष्ठा हुई है। उसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उस पर देश- विदेश की विभिन्न भाषाओं एवं शैलियों में इतनी अधिक टीकाएँ, वृत्तियाँ, भाष्य, चूर्णियाँ, अवचूरियाँ, अनुवाद तथा टीकाओं पर भी विविध टीकाएँ लिखी गई कि विश्व - साहित्य में शायद ही इतनी टीकाएँ एवं भाष्य आदि किसी अन्य ग्रन्थ पर लिखे गये हों। फिर भी दुर्भाग्य यह है कि इस कोटि के साहित्य का बहुल भाग अभी तक अप्रकाशित ही है, जो कि पाण्डुलिपियों के रूप में देश-विदेश के विभिन्न शास्त्र-भण्डारों' में सुरक्षित है। उनमें से कातन्त्र सम्बन्धी कुछ पाण्डुलिपियों का सूचीकरण भी हुआ है, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है
मध्यप्रदेश एवं बरार (विदर्भ में)
कारंजा (महाराष्ट्र)
राजस्थान
-
१८
७
४०
४५
गुजरात
आरा
भोट (भूटानी) भाषा की तिब्बती भाषा की
मास्को (रूस) में
डॉ. जानकीप्रसाद द्विवेदी के सर्वेक्षण के अनुसार देश-विदेश में कुल मिलाकर अभी तक उसकी विविध प्रकार की लगभग २६८ पाण्डुलिपियों की सूचना मिली है।
८
२३ टीकाएँ
१२ अनु.
२३ टीकाएँ
३ टीकाएँ (कुल ६१ टीकायें)
६२. कातन्त्र - व्याकरण की शिष्यहितान्यास - टीका, भूमिका, पृ. १० (सम्पा. - डॉ. रामसागर शास्त्री)
६३. श्रीमच्छर्ववर्म जैनाचार्य - विरचितं कातन्त्र-व्याकरणम् (कातन्त्र रूपमाला)