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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
भारतीय व्याकरण शास्त्र के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं.युधिष्ठिर मीमांसक ने उक्त शर्ववर्म का काल पाणिनि से १५०० वर्ष-पूर्व माना है ।
आचार्य भावसेन त्रैविद्य के अनुसार-तीर्थंकर ऋषभदेव की क्रमिक परम्परा से प्राप्त व्याकरणिक-ज्ञान को कातन्त्र अथवा कौमार या कलाप के नाम से संक्षिप्त सूत्र-शैली में सर्वप्रथम आचार्य शर्ववर्म द्वारा ग्रथित किया गया।" आकार में संक्षिप्त होने के कारण उसे मुष्टि-व्याकरण भी कहा गया है ।
इस ग्रन्थ की लोकप्रियता इसी से जानी जा सकती है कि युगों-युगों से वह काश्मीर, अफगानिस्तान, तिब्बत, भूटान, मंगोलिया, नेपाल, बर्मा एवं श्रीलंका के विभिन्न पाठ्यक्रमों में निर्धारित था तथा उन-उन देशों की भाषा एवं लिपियों में इनकी विविध प्रकार की दर्जनों टीकाएँ भी वर्तमान में उपलब्ध हैं।
साहित्यिक इतिहासकारों के अनुसार १२वीं-१३वीं सदी में कातन्त्र-व्याकरण का अच्छा प्रचार था। दुर्गसिंह एवं भावसेन-त्रैविद्य ने उस पर वृत्तियाँ लिखकर कातन्त्र-व्याकरण के महत्व एवं उसके आन्तरिक सौन्दर्य को ही प्रकाशित नहीं किया, बल्कि उन्होंने व्याकरण के क्षेत्र में कातन्त्र-व्याकरण सम्बन्धी एक ऐसे "कातन्त्र-आन्दोलन' का सूत्रपात किया, जिसने कि बिना किसी सम्प्रदायभेद तथा आम्नायभेद के अनेक वैयाकरणों एवं साहित्यकारों को आकर्षित और समीक्षात्मक तथा विशदार्थक लेखन-कार्य हेतु प्रेरित किया। अपभ्रंश-कवि भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह सके।
पासणाहचरिउ (अद्यावधि अप्रकाशित-अपभ्रंश महाकाव्य) का लेखक विबुध श्रीधर (१२वीं सदी) जब हरयाणा से भ्रमण करने हेतु दिल्ली आया, तो उसे वहाँ की सड़कें वैसी ही सुन्दर लगी थीं, जैसी कि जिज्ञासुओं के लिये कातन्त्र-व्याकरण की पंजिका-वृत्ति १। उस कातन्त्र-आन्दोलन का ही यह सुफल रहा कि पिछले लगभग ६-७ सौ वर्षों में देश-विदेशों में उस पर सैकड़ों विविध टीकाएँ आदि लिखी गई। एक प्रकार से यह काल कातन्त्र-व्याकरण के बहुआयामी महत्व के प्रकाशन का स्वर्णकाल ही बन गया था। इसकी सरलता, संक्षिप्तता, स्पष्टता, लौकिकता तथा उदाहरणों की दृष्टि से स्थानीयता तथा स्थानीय समकालीन लोक-संस्कृति के साथ-साथ उसमें भूगोल, अर्थनीति, राजनीति, समाजनीति आदि के समाहार के कारण वह ग्रन्थ निश्चय ही विश्व-साहित्य के शिरोमणि-ग्रन्थ रत्न के रूप में उभर कर सम्मुख आया है।
कातन्त्र अथवा कलापक (अर्थात् कलाप-व्याकरण) के प्राच्यकालीन अध्येता छात्रों के समूह को देखकर उसकी लोकप्रियता का अनुभव कर महर्षि पतंजलि (ई.पू.
८६. शिष्यहितान्यास-वृत्ति-भूमिका पृ.१४ ६०. मुष्टि व्याकरण नाम्ना कातन्त्र वा कुमारकम्। - कालापक प्रकाशात्म ब्रह्मणाभिधायकम् ।। (कातन्त्र-रूपमाला पृ. १६७) ६१. पासणाहचरिउ (विबुधश्रीधर, अप्रकाशित) आद्य-प्रशस्ति- १/३/१० है. यह ग्रन्थ इन पंक्तियों के लेखक द्वारा सम्पादित है तथा शीघ्र ही प्रकाशित होने जा १. रहा है।