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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख से उनका सम्पादन, हिन्दी, अंग्रेजी तथा अन्य देश-विदेश की भाषाओं में अनुवाद तथा मूल्यांकन के साथ प्रकाशित की जावें तथा लागत मूल्य पर उनकी बिक्री की जाए, तो जिनवाणी की सुरक्षा एवं प्रचार-प्रसार तो होगा ही, उन्हें विश्वविद्यालय स्तर के पाठ्य-ग्रन्थों के रूप में भी स्वीकृत कराया जा सकेगा। विदेशों में जैन-साहित्य की बढ़ती हुई माँग की पूर्ति भी इस माध्यम से हो सकेगी। पाण्डुलिपियों के लेखकों द्वारा दी गई चेतावनियाँ तथा उनकी विनम्र प्रार्थनाएँ .
पाण्डुलिपियों के लेखकों के सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ रहती थीं। जैसे-दुर्लभ रहने वाली लेखनोपकरण-सामग्रियों को उपलब्ध करना, प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था, एकान्त, सुशान्त-वातावरण, पारिवारिक भरण-पोषण की सन्तोषजनक व्यवस्था तथा पाण्डुलिपियों की दीमकों, चूहों अथवा मौसमी कुप्रभावों से उनकी सुरक्षा के साधनों आदि की सुलभता आदि, जिससे वे मनोयोग पूर्वक प्रतिलिपि-लेखन कार्य कर सकें। यह विषय अर्थार्जन की मनोवृत्ति से नहीं बल्कि जिनवाणी की सुरक्षा की भावना से किया जाता था। यह कार्य निश्चय ही धैर्यसाध्य, व्ययसाध्य एवं कष्टसाध्य होता था। जिस विषय की पाण्डुलिपि का वे प्रतिलिपि-कार्य करते थे, उस विषय, उस भाषा, उसकी लिपि एवं उसके व्याकरण का भी उन्हें पर्याप्त ज्ञान की आवश्यकता रहती थी, तभी प्रतिलिपि-कार्य प्रामाणिक भी हो पाता था। इस कार्य में सत्यनिष्ठा, श्रद्धा-भावना तथा समर्पण-भाव की भी अनिवार्यता रहती थी, तभी वह कार्य सफल भी हो पाता था। प्रतिलिपि-कार्य-समाप्ति के बाद उन्हें उससे ऐसी ममता हो जाती थी कि उसकी सुरक्षा के निमित्त वे अपने पाठकों को निरन्तर ही चेतावनी देते अथवा विनम्र प्रार्थना करते हुए कहा करते थे
भग्नपृष्ठिकटिग्रीवा भग्नदृष्टिरधोमुखः ।
कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ।।१।। अर्थात् इस पाण्डुलिपि के प्रतिलिपिकरण में मेरी पीठ, कमर एवं गर्दन टूट गई है, झुककर तथा नीचा मुख किये रहने के कारण मेरी दृष्टि में दोष उत्पन्न हो गये हैं
और आँखें पथरा गई हैं। कष्ट-पूर्वक यह शास्त्र लिख पाया हूँ। अतः हे पाठकगण, इसकी प्रयत्न पूर्वक सुरक्षा करते रहियेगा, यही मेरी विनम्र प्रार्थना है। तथा
तैलाद् रक्षेत् जलाद् रक्षेत् रक्षेत् शिथिल बन्धनात् ।
परहस्ते न दातव्यो एवं वदति पुस्तिका ।।२।। अर्थात् हे भाई, कष्ट पूर्वक लिखी गयी इस पाण्डुलिपि की तैल एवं जल से रक्षा करते रहना। इसे ढीला-ढाला भी मत बाँधना और दूसरे असावधान या अविवेकीजनों के हाथों में भी इसे मत देना। बस, इस प्रतिलिपि (तथा इस प्रतिलिपिकार) का आपसे यही विनम्र निवेदन है। क्योंकि
लेखनी-पुस्तिका-दारा परहस्ते गता गता। कदाचिद् पुनरायाता लष्टा भृष्टा च चुम्बिता ।।३।।