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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख पाण्डुलिपियों का दुर्भाग्य
__हमारे विद्यागुरु तथा षट्खण्डागम शास्त्र की धवला-टीका के उद्धारक और उसके प्रथम सम्पादक प्रो. डॉ. हीरालाल जी कहा करते थे कि हम जब भी, जहाँ भी जावें, वहाँ के जैन-मन्दिरों के दर्शन कर वहाँ की परिक्रमा अवश्य किया करें, क्योंकि वहाँ प्रायः ही जिनवाणी की प्राचीन जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपियाँ, आधे या पूरे बोरों में भरकर उन्हें जल-समाधि देने के निमित्त रखी रहती हैं। समाज के लोग यह नहीं समझते कि प्राचीनाचार्यों की कठोर-साधना एवं परिश्रम से लिखित वे पुरानी पोथियाँ या पाण्डुलिपियाँ ही जैन समाज की असली धरोहर हैं, क्योंकि उनमें हमारे इतिहास एवं संस्कृति तथा आगम-सिद्धान्त, आचार तथा अध्यात्म सभी कुछ वर्णित रहते हैं।
उक्त डॉ. साहब जब अमरावती (विदर्भ) में प्रोफेसर थे, तभी वे एक गाँव में गए। वहाँ के जैन-मन्दिर के दर्शन किए और परिक्रमा करते समय उन्होंने वहाँ एक बोरे से झाँकते हुए सुन्दर लिपि वाले कुछ फटे-पुराने पन्नों को देखा। एक पन्ने को जब ध्यान से पढ़ा, तो वह जैन रहस्यवादी-काव्य से सम्बन्धित पृष्ठ निकला।
उन्होंने जिज्ञासावश पूरा बोरा वहीं उड़ेल दिया, तो उसमें से तुड़े-मुड़े पूरे ग्रन्थ के पन्ने ही मिल गए। वह ग्रन्थ मुनि रामसिंह कृत अपभ्रंश-भाषा में लिखित "पाहुडदोहा" था, जिसका उन्होंने बाद में सम्पादन-अनुवाद किया और जिसे कारंजा (अकोला) की जिनवाणी-भक्त जैन-समाज ने प्रकाशित किया। उसके तुलनात्मक अध्ययन से विदित हुआ कि सन्त कबीर का रहस्यवाद उक्त ग्रन्थ से प्रभावित था। वर्तमान में यह ग्रन्थ अनेक विश्व-विद्यालयों में पाठ्यग्रन्थ के रूप में स्वीकृत है।
न जाने हमारे कितने ऐतिहासिक महत्व के ग्रन्थरत्न हमारी ही असावधानी तथा हमारे ही अज्ञान के कारण दीमक-चूहों के भोजन बन गए। कितने शास्त्रों को जलाकर विदेशी आक्रान्ताओं ने भोजन पकाया। विदेशी लोग कितने-कितने ग्रन्थ यहाँ से उठाकर ले गए ?
यह मैं पहले ही कह चुका हूँ कि भारत सरकार के आग्रह पर प्रो.डॉ.वी.राघवन् ने एक बार विदेशों में सुरक्षित पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण किया था और अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि भारत की ताडपत्रीय एवं कर्गलीय लगभग ५०००० से ऊपर हस्तलिखित दुर्लभ अप्रकाशित पाण्डुलिपियाँ विदेशों में ले जाई गई हैं, जिनमें से अकेले बर्लिन में ही लगभग ३५००० जैन एवं जैनेतर पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं।
__सन् १६७४-७५ के वीर निर्वाण भारती पुरस्कार-सम्मान ग्रहण करने के बाद जब मैं पूज्य मुनि श्री विद्यानन्द जी की सेवा में जैनबालाश्रम दरियागंज, दिल्ली में बैठा था, उसी समय प्रो.डॉ.ए.एन.उपाध्ये, जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान डॉ.आल्सडोर्फ को अपने साथ में लेकर आये। आल्सडोर्फ को दिगम्बर जैन साधु के साक्षात् दर्शन करने की तीव्र इच्छा थी। डॉ. उपाध्ये ने उनका परिचय आ. विद्यानन्दजी को देते हुए बतलाया कि डॉ. आल्सडोर्फ के पितामह एवं पिता जैन-साहित्य पर कार्य करते रहे और इन्होंने स्वयं भी सारा जीवन जैन-साहित्य की सेवा में व्यतीत कर दिया है। आचार्य बट्टकेर कृत