Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

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Page 90
________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख वह ग्रन्थ अपूर्ण ही रह गया है। उसकी प्रशस्ति में पूर्ववर्ती ३३ कवियों के नामोल्लेख हैं, किन्तु उनमें से अधिकांश के नाम एवं उनके ग्रन्थ साहित्यिक इतिहास से सदा-सदा के लिये विस्मृत हो चुके हैं। इसी प्रकार महाकवि रइधू कृत सचित्र संतिणाहचरिउ जहाँ त्रुटित रूप में उपलब्ध है, वहीं उसका पज्जुण्णचरिउ नामक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं तथा उसके सिरिवालचरिउ की एक पाण्डुलिपि पेरिस (फ्रांस) के प्राच्य-शास्त्र भण्डार में भी उपलब्ध है। महाकवि जयमित्र हल्ल कृत अपभ्रंश "महावीरचरिउ" की भी वही स्थिति है। उसकी बीच की ६ सन्धियाँ नष्ट हो जाने के कारण सन् १६७४-७५ में भ.महावीर के २५०० वें परिनिर्वाण समारोह-वर्ष में उसका प्रकाशन त्रुटित होने के कारण ही रोक दिया गया था। ___ अथक खोज करने पर भी अभी तक अणंगचरिउ (दिनकरसेन) करकंड-चरिउ रइधू), सुदंसणचरिउ एवं पज्जुण्णचरिउ (रइधू) जसहरचरिउ (अमरकीर्ति), चंदप्पहचरिउ (मुनि विष्णुसेन), धणयत्तचरिउ (अज्ञातकर्तृक), पउमचरिउ (चउमुह) पउमचरिउ (सेदु) पंचमीकहा (चउमुह) पंचमीकहा (स्वयम्भू), महावीरचरिउ (अमरकीर्ति), रिट्ठणेमिचरिउ (चउमुह), वरंगचरिउ एवं संतिणाहचरिउ (कवि देवदत्त), समत्तकउमुई (सहणपाल), अणुपेहा (सिंहनंदि), अमयाराहणा (गणि अंबसेन), झाणपईव (अमरकीर्ति), णवयारमंत (नरदेव), धर्मोपदेशचूडामणि (अमरकीर्ति), अंबादेवी चर्चरीरास (कवि देवदत्त) जैसे ग्रन्थ अद्यावधि अनुपलब्ध ही हैं। इसी प्रकार - महाकवि वीर (१०वीं सदी), श्रीचन्द्र (११वीं सदी), विबुधश्रीधर (१३वीं सदी), धवल (जिन्होंने १२२ सन्धियों में हरिवंशपुराण की रचना की, ११वीं सदी), गणि देवसेन (१२वीं सदी), महाकवि सिद्ध (१३वीं सदी), धनपाल (१५वीं सदी), महाकवि रइधू (१५–१६वीं सदी), भट्टारक श्रुतकीर्ति (१६वीं सदी), कवि महिन्दु या महाचंद (१६वीं सदी), पण्डित भगवतीदास (१७वीं सदी), आदि सिद्धहस्त कवियों ने भी अपनी-अपनी रचनाओं में अपने पूर्ववर्ती अनेक प्रमुख साहित्यकारों एवं उनके साहित्य के नामोल्लेख किये हैं किन्तु वर्तमान में उनमें से अधिकांश की कोई जानकारी नहीं मिलती। यदि यह साहित्य उपलब्ध हो जाता है, तो मध्यकालीन इतिहास के विविध-पक्षों को मुखरित करने में बड़ी सहायता मिलेगी। __जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि हमारे महान चिन्तक, साधक, आचार्य लेखकों ने ज्ञान-विज्ञान एवं लोकजीवन की शायद ही ऐसी कोई विधा हो, जिस पर उन्होंने अपनी लेखनी न चलाई हो। कर्मवाद, परमाणुवाद, आत्मवाद, अध्यात्मवाद, न्याय, नीति, चरित, काव्य, कथाकाव्य, छन्दशास्त्र, व्याकरण, कला, संगीत, शिल्प, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष, द्रव्य-व्यवस्था, लोकाचार, यहाँ तक कि पाक-शास्त्र, जीवशास्त्र, वनस्पति-विज्ञान, इतिहास, भूगोल, खगोल आदि के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट-कोटि के ग्रन्थ लिखे हैं। हंसदेव नामक जैनाचार्य ने तो मृग-पक्षिशास्त्र नामक ३६ सर्गों के १६०० श्लोकों में एक ग्रन्थ लिखा, जिसमें २२५ प्रकार के भारतीय पशु-पक्षियों की भाषा एवं

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