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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख खउसार = चर्मकार
मेकुनई = नहीं करते हैं नकासु = चित्रकार
सिरिजिन = हे श्री जिनेन्द्र जनि = महिला
तुरा = तुम्हें दरजीउ = सूचीकार, दर्जी सलामू = सलाम, नमस्कार
हे भगवान्, जो आपको नमस्कार नहीं करते, उन्हें मत्स्य, उष्ट्र, गाय, बैल, सुअर, चक्रक, कृष्णसार, बिल्ली, कुक्कुट, शेर, व्याघ्र, महिषी, काक, मक्खी, कावरि, पन्नग, बाज, रीछ, मयूर, गृहगोधिका, तीड, मत्कुण, चंचट, श्वान, हंस, बकरी, तीतर, मूषक आदि तिर्यच गति तथा चर्मकार, चित्रकार, महिला, सूचिकार, स्वर्णकार, नापित आदि जातियों में जन्म प्राप्त होता है। (११)-शहरु = शहर, नगर, पत्तन दरास = विस्तीर्ण, दराज दिह = ग्राम (डीह)
कसव = इक्षु उलात = देश
पिसि = पार्श्व में छत्रु = छत्र
तुरा = तव तुम्हारा खापूरु = कर्पूर
= एव, यह उदु = अगरु
नो = नैव, नहीं ही मिसिकि = कस्तूरी
सरा = शरह, सर्व जरु = स्वर्ग
मेखुहाई = याचना करता हूँ नवातु = शर्करा
रिसहा = हे ऋषभ ध्वांद = स्वामी
दोस्ती = सभी के साथ मैत्री रोजी = विभूति
वंदिनं = वन्दना, याचना
में दिहीति= मुझे दीजिए, बस हे ऋषभदेव, मैं आपसे शहर, ग्राम, देश, एकछत्र राज्य, कर्पूर, अगरु, कस्तूरी, सुवर्ण, शर्करा, स्वामीपना, विभूति, ईख आदि की याचना करने नहीं आया हूँ, बल्कि हे स्वामिन् , मैं तो आपसे यही याचना करने आया हूँ कि मैं सभी के प्रति न्याय करूँ, तथा सभी का मित्र बनूँ। हमारा विस्मृत तथा त्रुटित पाण्डुलिपि-साहित्य
अपभ्रंश के आद्य महाकवि स्वयम्भू कृत जैन-महाभारत-कथा-सम्बन्धी आद्य-अपभ्रंश ग्रन्थ-"रिट्ठणेमिचरिउ" दीर्घ-प्रतीक्षा के बाद अब छपना प्रारम्भ हुआ है। उसकी तथा पउमचरिउ की प्रशस्तियों में कवि ने संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के पूर्ववर्ती अनेक ऐसे जैन एवं जैनेतर महाकवियों के नामोल्लेख किए हैं, जिनमें से अधिकांश विस्मृति के गर्भ में जा चुके हैं।
राजा भोज के राज्यकाल में ११वीं सदी के कुन्दकुन्दान्वयी कवि नयनन्दी (११वीं सदी) ने वहीं के जिनवर-विहार में बैठकर अपने सुदंसणचरिउ के साथ ही ५८ सन्धि वाला अपभ्रंश-महाकाव्य "सयलविहिविहाणकव्व" लिखा था। उसकी मध्य की १६ सन्धियाँ अर्थात् १५वीं से लेकर ३१वीं सन्धि तक का अंश नष्ट हो जाने के कारण अब