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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
(५)-महमद = मुहम्मद, ईश्वर, कुतावीआ = कातिव, लेखक,
मालिम = उस्ताद, शिक्षक, मे मेदिहि = मुझे फरमान (आदेश) ईब्राहिम = ब्रह्मा,
दीजिए कि मैं क्या रहमाणा = महेश्वर,
वीतराग,कार्य करूं? ईहं = यह मैं ,
मुक्यल = दीजिए। तुरा = तुम्हारा,
हे प्रभु, तूही मेरा महमूद अर्थात् विष्णु है, तू ही मेरा इब्राहीम, अर्थात् मार्गदर्शक ब्रह्मा और तू ही मेरा रहमान अर्थात् महेश्वर है। मेरे लिए तुम ही सभी प्रकार के देवता हो। तुम्हीं मेरे लिए सत्पण्डित हो। मैं तो आपका आज्ञापालक लेखक मात्र हूँ। मुझे आप आदेश दें कि मैं क्या करूँ ? क्योंकि सत्-पण्डित ही शिष्य को आदेश दे सकता है। (इसकी तुलना भक्तामर स्तोत्र के २५वें पद्य से की जा सकती है)। (६) फरमूद तुरा= तुम्हारा आदेश, यंग = जंग, लड़ाई, रागद्वेष, जु = जो,
छोड़िय = छोड़ना, मेकुनइ . = नहीं करता है, सुधंग = दुख, खोसु = सुख, सन्तोष, मेचीनइ = दूर नहीं करता है, शलामथ = सलामत, कुशल, आदतनु = सहायता, अजदि = प्राप्त करता है,
= नव्य,
विश्व के हे स्वामिन्, तुम्हारे आदेश का जो पालन नहीं करता, वह विश्व के दुखों से छुटकारा नहीं पा सकता, वह सुख-सन्तोष, कौशल तथा सहानुभूति भी प्राप्त नहीं कर सकता। (७)-सादि = शादी, खुशी, तुष्टि, सु = सुन्दर, खस्मि = दुश्मनी,
में = मुझे, कुय = कोई भी,
दिहइ = देता है, अगर = यद्यपि,
बासइ = निवास करता है, तं = तुम,
हर = प्रतिनमस्कार, तुरा = तुम्हारा,
हरामु = व्यर्थ, हराम, सलामु = नमस्कार,
न = नहीं, वंदि = ऐसा, षलात = राजप्रसाद, खलअत,
___ हे प्रभु, यदि आप हमारा नमस्कार स्वीकार न करें तथा आप उससे सन्तुष्ट न हों और हमें कोई वरदान न दें तब क्या हमारा नमस्कार व्यर्थ नहीं चला जायेगा?