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किमपि न याचे किंतु त्वं मम न्यायं मैत्रीमेव देया इति भावार्थः ।
अस्मिंस्तवने क्वचित् पारसी क्वचित् आरब्बी क्वचिदपभ्रंशो ज्ञेयः । तुरा मरा इजि सर्वत्र संबंधे संप्रदाने च ज्ञातव्यं । तथा च कुरानकारः - अजइव्य त्वया दानसंबंधं संप्रदाययोः । रा सर्वत्र प्रयुज्येतान्यत्र वाच्यं सु रूपतः ।।
आनि मानि अस्मदीयं किं चि कियच्चं दिरीदृशं । चुनी हमचुनीन् ताद्दक वंदिनं तादृक् इयदेव च ।।
चोर्जे किमपि इत्यादि कुरानोक्तं लक्षणं सर्वत्र विज्ञेयं संप्रदायाच्च । इति श्री ऋषभदेव स्तवनं सटीकमिदमलेषि । श्री जिनप्रभसूरिकृतिरियं । शब्दार्थ एवं हिन्दी अनुवाद
(१) – अल्लाल्लाहि
ईल्लाही (हमारा ईश्वर) पूज्य.
सुराह
सहिषानु
तुं
मरा
वांद
दुनीयक समेदानइ
बुध
बुस्मारइ
चिरा नम्हं
दोस
जिहारि
पच्च
दह
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दानिसिमंद हकीकत आकित
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हे देव,
विस्मृत कर दिया, सुरक्षा नहीं देते।
हे अल्लाह, हे पूज्य, मैं आपका सेवक हूँ और आप पृथ्वीपति, मेरे स्वामी । जब आप सभी लोकों को जानते हैं, तब फिर हमारी खोज खबर क्यों नहीं लेते? हमारे दुखों
को इतने समय से क्यों नहीं समझते?
(२) – येक
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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
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अल्लाह,
मैं तुम्हारा,
शाहजहान, जगत का मालिक,
तुम,
हमारा, खाविंद, पति, स्वामी,
दुनियाँ को, जानते हो,
एक,
दो, तीन,
चार,
पांच,
दस,
बुद्धिमान् मध्यस्थ, वास्तविक,
होशियार कुशल,
८५.
मैं (इस निबंध का लेखक) स्वयं फारसी भाषा नहीं जानता किन्तु अपने मुस्लिम-विद्वान् मित्रों की सहायता से शब्दार्थ एवं हिन्दी अनुवाद पाठकों के हितार्थ तैयार किया है। त्रुटियों के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ ।