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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख शुद्धाचरण से अनेक हिन्दु तथा मुस्लिम शासकों को निरन्तर ही प्रभावित किया है। इनकी सूचनाएँ मध्यकालीन जैन पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियों तथा बाबरनामा, आइने-अकबरी, जहाँगीरनामा, शाहजहाँनामा तथा अन्य अनेक शाही-फरमानों में मिलती हैं। उनके अनुसार श्रावकों तथा श्वेताम्बर-जैन-साधुओं के लिए उनकी ओर से श्रद्धा-समन्वित सम्मान प्राप्त थे। समय-समय पर मुस्लिम-बादशाहों की ओर से उन्हें खुश्फहम ७७, नादिरज्जमा , जहाँगीरपसन्द ७६, महोपाध्याय ८० जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया। इस प्रकार के सम्मान-प्राप्त साधकों में महामुनि श्री हीरविजय सूरि, भानुचन्द्र -सिद्धिचन्द्र गणि, विजयसेनसूरि, उपाध्याय जयसोम, साधुकीर्ति एवं दयाकुशल आदि के नाम अग्रगण्य हैं।
भानुचन्द्र-सिद्धिचन्द्र गणि ने अकबर एवं जहाँगीर के विनम्र निवेदन पर फारसी-भाषा भी सीखी थी तथा अनेक जैन कृतियों के साथ-साथ कादम्बरी के कथा-भाग के सारांश का फारसी में अनुवाद भी किया था। जैन-कृतियों में भक्तामर स्तोत्र-वृत्ति, आदित्यसहस्रनामस्तोत्र एवं कुछ जैन-कथाएँ प्रमुख हैं। सम्राट अकबर उक्त जैन-कृतियों का समय-समय पर उनसे सस्वर पाठ सुनता था।
जैन-साधुओं के अनुरोध पर इन मुस्लिम-शासकों ने भी जैन-मन्दिरों को ध्वस्त न करने, पर्युषण में प्राथमिकता तथा माँसाहार न करने तथा जजिया कर माफ कर देने के लिए शाही-फरमान भी जारी किए थे ८१। फारसी भाषा में लिखित ऋषभदेव स्तोत्र
कुछ समय पूर्व गुजरात के एक शास्त्र-भण्डार में एक लघु पाण्डुलिपि ऐसी भी मिली है, जिसमें फारसी-भाषा-लिपि में तीर्थंकर ऋषभदेव का स्तवन किया गया है। उसके मूल-लेखक एवं संस्कृत-टीकाकार जिनप्रभसूरि हैं तथा प्रतिलिपिकार हैं उदयसमुद्रगणि।
१४वीं सदी के बहुभाषाविज्ञ उक्त आचार्य श्री जिनप्रभसूरि द्वारा मध्यकालीन फारसी-भाषा में रचित श्री ऋषभ-स्तोत्र के मूल-पाठ को देवनागरी में आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।
उक्त जिनप्रभसूरि दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद-बिन-तुगलक (सन् १३२५-५१ ई.) के समकालीन थे। जब सुल्तान को उक्त आचार्य के प्रकाण्ड-पाण्डित्य की सूचना मिली, तब उसने अपने दरबार के जैन-ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित धराधर-पण्डित को सन्देशहर के रूप में भेजकर दिल्ली में पधारने की उनसे विनम्र प्रार्थना की। आचार्यश्री को भी जब यह विदित हुआ कि सुल्तान की नीति सर्वधर्म-समन्वय की है तथा उसने अपने शासनकाल में सभी को अपने-अपने धर्म को मानने तथा देवी-देवताओं के पूजने की पूरी आजादी दे ७७. अकबर सुरत्राण हृदयाम्बुजषट्पदः ।
दधानः खुशफहमिति विरुदं शाहिनार्पितम् ।। भक्तामरस्तोत्रवृत्तिः (आदिप्रशस्ति) ७८-७६. वही. (जहाँगीर द्वारा प्रदत्त विरुद्, दे. जिनशतकटीका अन्तिम पुष्पिका) ८०. जिनशतक-टीका-प्रशस्ति तथा काव्यप्रकाश-खण्डनम् की प्रशस्ति ८१. सिद्धिचन्द्र-भानुचन्द्र-गणि चरित, (सिंघी जैन सीरिज), अहमदाबाद, १६४१. ८२. जैन-साहित्य-संशोधक ३/६ पृ. २४-२५ एवं प्राकृत-विद्या .....