Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ ५० जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख शुद्धाचरण से अनेक हिन्दु तथा मुस्लिम शासकों को निरन्तर ही प्रभावित किया है। इनकी सूचनाएँ मध्यकालीन जैन पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियों तथा बाबरनामा, आइने-अकबरी, जहाँगीरनामा, शाहजहाँनामा तथा अन्य अनेक शाही-फरमानों में मिलती हैं। उनके अनुसार श्रावकों तथा श्वेताम्बर-जैन-साधुओं के लिए उनकी ओर से श्रद्धा-समन्वित सम्मान प्राप्त थे। समय-समय पर मुस्लिम-बादशाहों की ओर से उन्हें खुश्फहम ७७, नादिरज्जमा , जहाँगीरपसन्द ७६, महोपाध्याय ८० जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया। इस प्रकार के सम्मान-प्राप्त साधकों में महामुनि श्री हीरविजय सूरि, भानुचन्द्र -सिद्धिचन्द्र गणि, विजयसेनसूरि, उपाध्याय जयसोम, साधुकीर्ति एवं दयाकुशल आदि के नाम अग्रगण्य हैं। भानुचन्द्र-सिद्धिचन्द्र गणि ने अकबर एवं जहाँगीर के विनम्र निवेदन पर फारसी-भाषा भी सीखी थी तथा अनेक जैन कृतियों के साथ-साथ कादम्बरी के कथा-भाग के सारांश का फारसी में अनुवाद भी किया था। जैन-कृतियों में भक्तामर स्तोत्र-वृत्ति, आदित्यसहस्रनामस्तोत्र एवं कुछ जैन-कथाएँ प्रमुख हैं। सम्राट अकबर उक्त जैन-कृतियों का समय-समय पर उनसे सस्वर पाठ सुनता था। जैन-साधुओं के अनुरोध पर इन मुस्लिम-शासकों ने भी जैन-मन्दिरों को ध्वस्त न करने, पर्युषण में प्राथमिकता तथा माँसाहार न करने तथा जजिया कर माफ कर देने के लिए शाही-फरमान भी जारी किए थे ८१। फारसी भाषा में लिखित ऋषभदेव स्तोत्र कुछ समय पूर्व गुजरात के एक शास्त्र-भण्डार में एक लघु पाण्डुलिपि ऐसी भी मिली है, जिसमें फारसी-भाषा-लिपि में तीर्थंकर ऋषभदेव का स्तवन किया गया है। उसके मूल-लेखक एवं संस्कृत-टीकाकार जिनप्रभसूरि हैं तथा प्रतिलिपिकार हैं उदयसमुद्रगणि। १४वीं सदी के बहुभाषाविज्ञ उक्त आचार्य श्री जिनप्रभसूरि द्वारा मध्यकालीन फारसी-भाषा में रचित श्री ऋषभ-स्तोत्र के मूल-पाठ को देवनागरी में आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। उक्त जिनप्रभसूरि दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद-बिन-तुगलक (सन् १३२५-५१ ई.) के समकालीन थे। जब सुल्तान को उक्त आचार्य के प्रकाण्ड-पाण्डित्य की सूचना मिली, तब उसने अपने दरबार के जैन-ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित धराधर-पण्डित को सन्देशहर के रूप में भेजकर दिल्ली में पधारने की उनसे विनम्र प्रार्थना की। आचार्यश्री को भी जब यह विदित हुआ कि सुल्तान की नीति सर्वधर्म-समन्वय की है तथा उसने अपने शासनकाल में सभी को अपने-अपने धर्म को मानने तथा देवी-देवताओं के पूजने की पूरी आजादी दे ७७. अकबर सुरत्राण हृदयाम्बुजषट्पदः । दधानः खुशफहमिति विरुदं शाहिनार्पितम् ।। भक्तामरस्तोत्रवृत्तिः (आदिप्रशस्ति) ७८-७६. वही. (जहाँगीर द्वारा प्रदत्त विरुद्, दे. जिनशतकटीका अन्तिम पुष्पिका) ८०. जिनशतक-टीका-प्रशस्ति तथा काव्यप्रकाश-खण्डनम् की प्रशस्ति ८१. सिद्धिचन्द्र-भानुचन्द्र-गणि चरित, (सिंघी जैन सीरिज), अहमदाबाद, १६४१. ८२. जैन-साहित्य-संशोधक ३/६ पृ. २४-२५ एवं प्राकृत-विद्या .....

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140