Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

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Page 82
________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख रखी है, तब वे पैदल चलकर स्वयं दिल्ली पधारे। सुल्तान ने उनका पूरा-पूरा सम्मान किया। इसके भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं कि सुल्तान ने न केवल जैन-मुनियों एवं भट्टारकों को सम्मानित कर उन्हें अपने धर्म-प्रचार की आजादी दी, बल्कि अनेक दुर्लभ-ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों की सुरक्षा की व्यवस्था में भी योगदान किया। केवल यही नहीं, बल्कि उसने अनेक सयूरगानों (श्रावक, सरावगीयान अथवा सरावगी जनों) तथा अनेक जैन-अग्रवालों को अपना विश्वस्त मानकर उन्हें ऊँचे-ऊँचे पदों पर प्रतिष्ठित भी किया था। यहाँ यह ध्यातव्य है कि मध्यकालीन फारसी भाषा शौरसैनी-प्राकृतापभ्रंश से कितनी प्रभावित थी, उसके अनेक उदाहरण अधोलिखित स्तोत्र में मिल सकते हैं। शौरसैनी एवं फारसी के प्राचीन काल से ही घनिष्ठ-सम्बन्धों के अध्ययन-शोध करने वाले भाषा-शास्त्रियों के लिये इस स्तोत्र में पर्याप्त शब्द-सम्पदा उपलब्ध हो सकती है। बहुत सम्भव है कि मुहम्मद-बिन-तुगलक की प्रेरणा से जिनप्रभ-सूरि ने उक्त ऋषभ-स्तोत्र की रचना की हो, जो भक्तिभरित, सरल एवं श्रेष्ठ हैं। यह भी सम्भव है कि सुलतान तुगलक विशिष्ट जैन-पर्यों के दिन जैन-समाज के मध्य उपस्थित होकर इस स्तोत्र का पाठ भी सुनता हो और जिससे परवर्ती सम्राट अकबर एवं शाहजहाँ को भी प्रेरणा मिली हो, क्योंकि भानुचन्द्र-सिद्धिचन्द्र-गणी एवं महाकवि बनारसीदास ८३ के साहित्य से ज्ञात होता है कि उन दोनों सम्राटों के भी जैन-साधकों, जैन-कवियों एवं जैन-समाज से घनिष्ठ सम्पर्क थे। अपने सम्मान्य पाठकों को इसकी संक्षिप्त जानकारी देने के लिए उक्त फारसी स्तोत्र की संस्कृत-टीका, शब्दार्थ एवं हिन्दी-अनुवाद के साथ उसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है - अल्लाल्लाहि तुराहं कीम्बरु सहियानु तुं भरा ष्वांद । दुनीयक समेदानइ बुस्मारइ बुध चिरा नौं ।।१।। संस्कृत-व्याख्या -१. अल्लाल्ला० हे पूज्य । तवाहं कर्मकरः । त्वं च पृथिवीपतिर्मम स्वामी। वसुधालोकान् जानासि । हे देव। चिरा कस्मात् अस्मान्न संभालयसि । यतस्त्वं मेदिनी सर्वामपि वेत्सि, ततो मां दुःखिनं (कथं) न वेत्सीत्यर्थः । येके दोसि जिहारि पंच्च शस ल्ल्य हस्त नो य दह। दानिसिमंद हकीकत आकिलु तेयसु तुरा दोस्ती ।।२।। संस्कृत-व्याख्या -२. एको द्वौ त्रयश्चत्वारः पंच षट् सप्त अष्टौ नव दश वा ते एव नरा गुणिनो मध्यस्थाः साधवो येषां त्वदीया मैत्री । कोऽर्थः एको वा द्वौ वा यावत् दश वा त एव गुणिनो येषां त्वय्यनुरागो नापरे । गाथाद्वयं । ____ आनिमानि खतमधु खुदा विस्तवि किंचि बिवीनि। ___ माहु रोजु सो जामु मुरा ये कुय दिलु विनिसीनि।।३।। ८३. दे. अर्थकथानक, (बम्बई, १६४३) भूमिका पृ. २४

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