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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख (३) मद्य-माँस का सेवन करोगे, (४) अधम-मनोवृत्ति वालों की संगति में रहोगे, (५) जरूरत-मन्दों के लिये धन-दान या परोपकार न करोगे और यदि, - (६) रणक्षेत्र में पीठ दिखाओगे, तो तुम्हारा राज्य एवं राज्यवंश देखते ही
देखते नष्ट हो जायेगा ४३ |
एक शिलालेख ४४ के अनुसार इस गंग-वंश का अभेद्य दुर्ग नन्दिगिरि पर स्थित था, जिसकी राजधानी कुवलाल थी। इस वंश का ६६ हजार देशों (ग्रामों) पर आधिपत्य था। जिनेन्द्रदेव उसके अधिदेवता थे। रणविजय ही उनका साथी था। ये (दडिग एवं माधव) जैनधर्म के परम आराधक थे और इन्हीं शक्तियों के साथ वे अपने राज्य का शासन-कार्य करते थे।
गंग-राज्यवंश की स्थापना सम्बन्धी उक्त तथ्य का समर्थन सं. १२३६ के शिलालेख से भी होता है, जिसका परीक्षण विंसेंट स्मिथ ४५, लुईस राईस ४६, डॉ. सलेत्तोर ४७ आदि ने करके उसकी प्रामाणिकता पर विस्तृत प्रकाश डाला है।
आगे चलकर इसी वंश में श्रीमत् कोंगुणि वर्मा का धर्म-महाराजाधिराज विरुदधारी विद्वान-पुत्र दुर्विनीत हुआ । इसी दुर्विनीत ने गुणाढ्य की बृहत्कथा का संस्कृत में अनुवाद तथा किरातार्जुनीय महाकाव्य के १५ वें सर्ग की संस्कृत-टीका भी लिखी थी ४८ |
इन राजाओं की विद्वत्ता का मूल कारण यह था कि वे आचार्य देवनन्दि-पूज्यपाद के भक्त-शिष्य थे। गंगराज अविनीत (वि.सं. ५२३) ने उन्हें केवल सम्मान ही नहीं दिया था, अपितु अपने पुत्र राजकुमार दुर्विनीत को उनके सान्निध्य में शिक्षा भी प्रदान कराई थी। राष्ट्रकूट वंश
गंगवंशी नरेशों के समान ही राष्ट्रकूट-वंशी नरेशों के यशस्वी कार्यकलापों की चर्चा भी शिलालेखों में मिलती है। राजा शिवमार (द्वितीय) के राज्यकाल में राष्ट्रकूटों ने गंगवाडी पर अधिकार किया अवश्य, किन्तु जैनधर्म के प्रति अटूट-भक्ति में वे भी गंगों सें पीछे न रहे। वि. सं. ८११ सं १०३१ तक राष्ट्रकूट-वंशी नरेशों ने कर्नाटक पर शासन किया।
राष्ट्रकूट-नरेश दन्तिदुर्ग (अपरनाम साहसतुंग) ने जैन-न्यायशास्त्र के पिता माने जाने वाले भट्ट अकलंकदेव का सार्वजनिक सम्मान किया था। श्रवणवेलगोल में 83. Salatore's Medieval Jainism P. 11 ४४. जैन शिलालेख संग्रह भा. २. लेखांक २४४ 84. The Oxford History of India P. 199 8&. Mysore Gazetteer Vol. I P. 308-310. ४७.Mysore Gazetter Vol. IP.311. ४६. Medieval Jainismp.22-23.