Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख ४१ करुणा-भावना से ओतप्रोत तथा सर्वधर्म-समन्वय की वृत्ति वाला हो, वह सार्वजनिक सेवाओं में सदा आगे रहने वाला हो और जो पंच-परमेष्ठियों की उपासना में निरंतर तत्पर रहता हो। जगडू में ये सभी गुण विद्यमान थे। उसने तीर्थयात्राओं के लिए विशाल संघ निकाले। अनेक जिन-मन्दिरों पर स्वर्णकलश चढ़ाए, अगणित ध्वजारोहण-समारोह किये, वर्धमानपुर (बाढवाण, गुजरात) में विशाल कलापूर्ण चौबीसी-मन्दिर का निर्माण कराया और उसमें मम्माणिक-पाषाण की महावीर स्वामी की मूर्ति के साथ अन्य अनेक मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कराई, भद्रेश्वर में ही उसने अपने मुस्लिम-भाईयों के लिये एक विशाल मस्जिद तथा ग्रामों-ग्रामों एवं नगरों-नगरों की जल सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर करने के लिये अगणित कुएँ, बावड़ियाँ, सरोवरों एवं बाँधों के निर्माण कराये।। एक दिन जगडू के गुरु ने भविष्यवाणी की वि. सं. १३१२ के तीन वर्षों के बाद गुजरात में तीन वर्षों का भयंकर अकाल पड़ेगा। इससे चिन्तित होकर जगडू ने अकाल पीड़ितों के निमित्त सैकड़ों अन्नागार बनवाकर उनमें अपरिमित अनाज का संग्रह करना प्रारंभ कर दिया। वि.सं. १३१३ में वास्तव में सारे गुजरात में वृष्टि का अभाव हो गया। इस कारण अकाल पड़ गया। स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि एक दिरम (अर्थात् ४ आने) में चनों के १३.१३ दाने बिकने लगे। अनहिलवाडा के राजा वीसलदेव अपने राज्य में भुखमरी देखकर द्रवित हो उठे। जब उन्हें पता चला कि जगडू ने अपने अन्नागारों में अपरिमित अनाजों का संग्रह किया है, तो खरीदने के विचार से उन्होंने जगडू को दरबार में बुलवाकर उससे अपना सारा अनाज राज्य को बेचने का अनुरोध किया। जगडू ने राजा से अत्यंत विनम्रता पूर्वक निवेदन किया कि महाराज - " मेरे पास अपना अन्न तो कुछ भी नहीं है। जो कुछ है भी, तो वह सब तो प्रजाजनों का ही (अन्न) है। यदि आपको विश्वास न हो, तो चलकर अन्न-भण्डार के दरवाजे पर लिखा हुआ मेरा ताम्र-पट्ट स्वयं पढ़ लें। वीसलदेव आश्चर्य-चकित होकर अन्न-भण्डार के पास आया और उस पर लिखे हुए पट्ट को पढ़ा। उस पर स्पष्ट लिखा था जगडू कल्प्यामास रंकार्थ कणानमून्। अर्थात् जगडू ने यह अन्न अकाल-पीड़ितों को बाँटने के संकल्प से ही एकत्रित किया है। तत्पश्चात् उसने अपने ७०० अन्न-भण्डार वीसलदेव को भेंट-स्वरूप अर्पित कर दिये। उन अन्न-भण्डारों में ३ करोड ६६ लाख ६० हजार मन से भी अधिक अनाज संचित किया गया था। इसके अतिरिक्त भी, जगडू ने सिन्धु देश के राजा हमीर को १२ हजार मुडे ६१ मुइजुदीन को २१ हजार मुड़े, काशी के राजा प्रतापसिंह को ३२ हजार मुड़े तथा ६१. एक मुड़े के बराबर ४० मन अनाज होता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140