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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
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५. सुग्रीव ज्योतिषी कृत- १. आयप्रश्न-तिलक ये सभी रचनाएँ कोल्हापुर (८वीं सदी के आसपास) २. प्रश्नरत्न
(महाराष्ट्र) के प्राचीन शास्त्र ३. आय-सद्भाव भण्डार में सुरक्षित कही ४. स्वप्न-फल
जाती हैं।
५. सुग्रीव-शकुन ६. पल्लवकीर्ति कृत इनकी कृतियाँ अज्ञात हैं।
(८वीं सदी के आसपास) ७. धर्मसेन
इनकी कृतियाँ अज्ञात हैं। (८वीं सदी के आसपास) ८. सर्वनन्दि
इनकी कृतियाँ अज्ञात हैं। (८वीं सदी के आसपास) ६. कीर्तिरत्न
इनकी कृतियाँ अज्ञात हैं। (८वीं सदी के आसपास) १०. वीरबन्दक
इनकी कृतियाँ अज्ञात हैं। (८वीं सदी के आसपास) आदि आदि,
(११) प्राच्यकालीन प्रशस्तियों के अनुसार श्रमण-परम्परा के संरक्षण एवं विकास में श्रद्धेय भट्टारकों के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। इनका इतिहास बड़ा ही प्रेरणास्पद एवं रोचक है किन्तु उसके कथा-कथन का यहाँ अवसर नहीं । दक्षिण-भारत में कसायपाहड एवं षटखण्डागम सम्बन्धी तथा अन्य प्रमुख आचार्यों की ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों और उत्तर-भारत में कर्गलीय पाण्डुलिपियों के रूप में हमारी जिनवाणी सुरक्षित रह सकी तथा उनमें नए-नए ग्रन्थों का जो लेखन-कार्य चलता रहा, उसका अधिकांश श्रेय उन महामहिम भट्टारकों को ही है, जिन्होंने दिशा-निर्देशक, उत्साहवर्धक अपने अगणित कार्य-कलापों से समाज को निरन्तर जागरूक बनाए रखने के अथक प्रयत्न किये।
महाकवि रइधू ने पूर्ववर्ती एवं समकालीन १३ भट्टारकों के नामोल्लेख एवं उनके कार्यकलापों की संक्षिप्त चर्चा की है, जो सभी काष्ठासंघ, माथुरगच्छ एवं पुष्करगण-शाखा के थे ६७ । ये सभी भट्टारक परम तपस्वी, प्रतिभा-सम्पन्न एवं गम्भीर विद्वान् थे। इन भट्टारकों में से दो के नाम विशेष रूपेण उल्लेखनीय हैं। एक तो भट्टारक यशःकीर्ति हैं, जिन्होंने रइधू को प्रेरित एवं उत्साहित कर उनके कविरूप को जागृत किया, जो आगे चलकर अपभ्रंश-साहित्य के महान् कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए और जिनकी अनेक रचनाओं में से अद्यावधि २४ रचनाएँ उपलब्ध हैं।
भट्टारक यशः कीर्ति ने स्वयं भी गोपाचल-दुर्ग के समीपवर्ती पनियार-मठ के
६७. विशेष विस्तार के लिये देखिये - रइधु साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन
प्रथम सन्धि