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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख प्रश्न - वैभव के होने पर प्रशंसनीय विषय क्या है ? उत्तर - उदारता, जिससे स्व-पर को सुख-सन्तोष मिलता है। प्रश्न - धन-विहीन पुरुष की प्रशंसनीय बात कौन-सी मानी जाने योग्य है! उत्तर - उदारता, मानवता एवं ऋजुता। प्रश्न - शक्ति-सम्पन्न पुरुषों का सराहनीय गुण कौन-सा है ? उत्तर - सहिष्णुता, क्षमाशीलता एवं न्यायप्रियता।
अमोघवर्ष के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के आधार पर सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रा.गो.भण्डारकर ने लिखा है कि-" समस्त राष्ट्रकूट राजाओं में सम्राट अमोघवर्ष जैनधर्म का महान् संरक्षक था और यह बात सत्य प्रतीत होती है कि उसने स्वयं जैनधर्म धारण किया था ५६ | " ।
(३) अपभ्रंश के त्रिषष्ठिशलाकामहापुराणपुरुषचरित (अपरनाम महापुराण) की आद्य-प्रशस्ति से विदित होता है कि महामंत्री भरत एवं नन्न ने महाकवि पुष्पदन्त को अनुनय-विनय कर अपने राजमहल में आश्रय देकर अपभ्रंश के उच्चकोटि के साहित्य के लिखने की प्रेरणा दी थी। पुष्पदन्त ने स्वयं कहा है कि " प्राकृत-कवि-काव्य रसावलुब्ध भरत एवं गन्न परम राष्ट्र-भक्त एवं प्रजावत्सल हैं। राष्ट्र की रक्षा के लिए आयुधास्त्र ढोते-ढोते उनके कन्धे छिल गए हैं। वे साहित्यरसिक ऐसे हैं कि उनका राजमहल साहित्यकारों, संगीतकारों एवं कलाकारों के लिए सुविधा-सम्पन्न उच्च विद्या-केन्द्र बन गया है. जहाँ रहकर वे विविध प्रकार के साहित्य एवं संगीतशास्त्र का प्रणयन एवं प्रयोग करते रहते हैं ६० ।
(४) गुजरात के आचार्य सर्वानन्दसूरि (१3 वीं-१४ वीं सदी) द्वारा विरचित एक सुन्दर रचना मिली है, जिसका नाम है जगडूचरित।
- इस रचना का कथानायक भद्रेश्वर (गुजरात) निवासी जगडू शाह एक दिन नगर के बाहर घूम रहा था। उसी समय उसकी दृष्टि एक बकरी के गले में बँधे हुए पत्थर पर पड़ी। उसकी पारखी दृष्टि ने समझ लिया कि यह कोई मूल्यवान् पत्थर है। अतः उसने बकरी के मालिक को मुँहमाँगा मूल्य देकर उसे खरीद लिया। बाद में उसे साफ-सुथरा कर बाजार में बेचा, तो उसे एक लाख स्वर्णमुद्राएँ प्राप्त हुईं क्योंकि वह एक बड़े आकार का निर्दोष अखण्ड असली हीरा था।
जगडू इस व्यापार से इतना उत्साहित हुआ कि धीरे-धीरे उसने अपना यह व्यापार आगे बढ़ाया। विदेशों से भी आयात-निर्यात का व्यापार प्रारम्भ किया और शीघ्र ही अपरिमित चल-अचल सम्पत्ति का स्वामी बन गया।
उक्त लेखक के अनुसार श्री-समृद्धि की सार्थकता तभी तक है, जब तक कि उसका स्वामी विनम्र, संवेदनशील, उदारठहृदय, निरभिमानी, दीन-अनाथों के प्रति
५६. कर्नाटक के जैन कवि पृ. ३२ ६०. तिसट्ठिमहापुराणपुरिसगुणालंकारु - प्रशस्ति