Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

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Page 67
________________ ३६ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख नामावली प्रस्तुत की गई है। इस शिलालेख में कक्कुक द्वारा एक जैनमन्दिर के निर्माण तथा प्रजाजनों की सुविधा के लिए चहारदिवारी से घिरे हुए सुरक्षित एक हाट-बाजार (Market) के बनाए जाने की भी चर्चा की गई है। जैनों के सर्वधर्म-समन्वयकारी तथा सार्वजनिक कल्याणकारी कार्यों के इतिहास की जानकारी की दृष्टि से उक्त शिलालेख का विशेष महत्व है । वर्तमानकालीन मार्केटों (हाट-बाजारों) की परम्परा भारत में सम्भवतः राजा कक्कुक के समय से प्रारम्भ हुई। इसकी आवश्यकता इसलिए पड़ी होगी क्योंकि वह समय विदेशी आक्रमणों का था, उसके कारण राजनैतिक अस्थिरता, सामाजिक अव्यवस्था, आर्थिक दुरावस्था, सर्वत्र असुरक्षा एवं भय के व्याप्त होने के कारण नागरिकों को उससे उबारने तथा दैनिक आवश्यकताओं की सामग्री एवं खाद्यान्नादि की पूर्ति हेतु एक द्वार वाले एक सुरक्षित चतुर्दिक घेरेबन्दी में सुविधा सम्पन्न हाट-बाजार बनाने की परम्परा का आविष्कार किया गया। कक्कुक - शिलालेख के अनुसार उस (राजा कक्कुक) ने रोहिंसकूप (घट्याला, जोधपुर, राजस्थान) में महाजनों, ब्राह्मणों, सेना तथा व्यापारियों के लिए एक विशाल हाट-बाजार बनवाकर अपनी कीर्ति का विस्तार किया था यथा सिरिकक्कुण हट्ट महाजणं-विप्प-पयइ-वणि-बहुलं । रोहिंसकूवगामे णिवेसियं कित्तिविद्धीए । २० ।। निष्कर्ष यह कि शिलालेखों के रूप में उपलब्ध इन शिलालेखीय पाण्डुलिपियों ने यदि भारतीय इतिहास के साथ-साथ जैन इतिहास को भी सुरक्षित न रखा होता, तो आज श्रमण-संस्कृति का इतिहास ही नहीं बल्कि भारतीय इतिहास भी सम्भवतः अन्धकार- युग में विचरण करता रहता । ५३ जैन पाण्डुलिपियाँ-ताड़पत्रीय एवं कर्गलीय-प्रशस्तियों में उपलब्ध कुछ रोचक ऐतिहासिक सामग्री जैन पाण्डुलिपियाँ अपनी अनेक मौलिक विशेषताओं के कारण देश-विदेश के प्राच्य विद्याविदों के लिए आश्चर्य एवं आकर्षण की विषय रही हैं क्योंकि उनमें जीवन एवं जगत के प्रायः सभी पक्षों के संक्षिप्त या विस्तृत चित्रण उपलब्ध होते हैं। ५३. ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण होने पर भी उनका बहुआयामी निष्पक्ष विस्तृत अध्ययन न हो पाने के कारण सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं पुरातत्वेता डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने विहल मन से ठीक ही लिखा था - "इतिहास के स्रष्टा तो चले गये, पर स्रष्ट- इतिहास को एकत्र करने वाले भी उत्पन्न नहीं हो रहे। अपनी ही मिट्टी में अपने बहुमूल्य रत्न दबे पड़े हैं। उनको हमने अपने पैरों से रौंदा है। इनको चुनने के लिये समुद्र के उस पार से टॉड, फार्वीस, ग्रॉस, कनिंघम, आदि आये। वे इतिहास - गवेषणा के लिये नियुक्त नहीं किये गये थे, पर वे अपने राजकीय कार्य के बाद अवकाश के समय यहाॅ की प्रेम-गाथाएँ तथा शौर्य-कथाओं से प्रभावित हुए। इनका स्वर उनके कानों में पड़ा। उसी पुकार ने उनके हृदय में शोधक - बुद्धि उत्पन्न कर दी।' ( डॉ. अग्रवाल के एक भाषण का अंश)

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