Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

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Page 44
________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख २५ समय-समय पर सर्व-पाषंडों (अर्थात् सभी सम्प्रदायवालों) के साथ मिलकर तथा अपनी उपस्थिति में वह "समाज" (सार्वजनिक समारोह) कराकर सभी का मनोरंजन करता रहता था और इस माध्यम से प्रजा-जनों के हृदय को जीतता रहता था ३० | शिलालेख की दूसरी पंक्ति के अनुसार खारवेल ने २४ वर्ष की आयु प्राप्त करते-करते लिपि-विद्या, गणित, नीति, युद्ध-कौशल एवं कलाओं में निपुणता प्राप्त कर ली थी । कलिंग की अतीतकालीन आदर्श-परम्पराओं को देखते हुए यह विदित होता है कि कलिंग में ज्ञान-विज्ञान के प्रशिक्षण केन्द्र सर्वत्र रहे होंगे। सुसंस्कृत, सुशिक्षित एवं समृद्ध समाज तथा प्रगतिशील आदर्श राष्ट्रनिर्माण के लिए संस्कृति-प्रेमी खारवेल ने भी राष्ट्र के भावी कर्णधार बालक-बालिकाओं के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी हो तथा उनके लिए पाठशालाओं की भी सर्वत्र व्यवस्था कर दी हो तो कोई आश्चर्य नहीं। सम्राट खारवेल ने मगध पर प्रथम-विजय के उपलक्ष्य में कल्पद्रुम-पूजाविधान ३२ कर उसमें बिना किसी भेद-भाव के ब्राह्मणों, श्रमणों एवं अन्य याचकों को उनकी इच्छानुसार हाथी, घोड़े, रथों एवं समृद्धियों का मुक्तहस्त से यथेच्छ दान दिया था। जैनाचार्यों ने एक उल्लेख में बताया भी है किमिच्छकेन दानेन जगदाशा प्रपूर्य यः । चक्रिभिः क्रियते सोऽर्हत् यज्ञः कल्पदुमो मतः ।। सागारधर्मामृत-आशाधर २/२८ अर्थात् "आप क्या चाहते हैं, इस प्रकार पूछ-पूछ कर याचकों को उनकी इच्छानुसार ही उनके मनोरथों को पूर्ण करके अरिहन्त भगवान् की जो पूजा की जाती है, उसे कल्पद्रुम-पूजा-विधान कहा गया है।" खारवेल का उक्त विधान एवं किमिच्छिक-दान-आयोजन इतना आकर्षक एवं भावोत्तेजक था कि कलिंग के लोगों ने सादर श्रद्धापूर्वक खारवेल का सार्वजनिक सम्मान-समारोह कर उसमें उसका पलव-भार अर्थात् तुलादान भी किया था ३३ | किसी व्यक्ति के तुलादान का यह उल्लेख विश्व-इतिहास में सम्भवतः सर्वप्रथम किया गया है, जो हाथीगुम्फा-शिलालेख में उपलब्ध है। जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि खारवेल के मन में इस बात की बड़ी चिन्ता रही होगी कि जैन-संस्कृति एवं उसकी प्रातिभिक-समुन्नति की प्रतीक तथा कण्ठ-परम्परा से निसृत द्वादशांग-वाणी की सुरक्षा कैसे हो? क्योंकि उसके समय तक उसका अधिकांश भाग विस्मृत अथवा लुप्त हो गया था। अतः उसने देश के कोने-कोने ३०. खारवेल शिलालेख पं. ४-५ ३१. वही पं. २ ३२. वही पं. ६ और विशेष के लिये देखिये- छक्खंडागम-बन्ध ३/४२ पृ. ६२, प्रतिष्ठातिलक- १०/१३ पृ. ५१७. महापुराण (जिनसेन) ३८/३१, पुरुदेवचम्पू १/१, जिनसहस्रनाम–१०/११५, आदिपुराण - १७/२२१, १६/१०. ३३. खा. शि. पं. ८

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