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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख से पधारने का अनुरोध कर उनका सम्मेलन क्यों करता तथा उनसे उसमें मौर्यकाल में उच्छिन्न २५ "चोयट्ठि" (चउ+अट्ठी अर्थात् ४+५=१२ अर्थात् द्वादशांगवाणी) का वाचन-प्रवचन करने का सादर निवेदन क्यों करता? यह यक्ष-प्रश्न गम्भीरता पूर्वक विचार करने का है। इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि कर्नाटक सहित दक्षिण भारत में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का काल और अधिक नहीं, तो कम से कम (१५०+१३००=) १४५० ई.पू. अथवा तीर्थंकर-पार्श्व से भी पूर्वकालीन रहा होगा।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, हाथीगुम्फा-शिलालेख की १२वीं पंक्ति के अनुसार नन्दराज कलिंग पर आक्रमण कर "कलिंग-जिन'' का अपहरण कर उसे मगध ले आया था। इतिहासकारों ने इसका विश्लेषण कर बताया है कि कलिंग-जिन कलिंग के राष्ट्रिय-गौरव का प्रतीक था तथा नन्दराज के आक्रमण के समय जैनधर्म वहाँ का राष्ट्रधर्म था। कलिंग की स्वाभिमानी प्रजा उस 'कलिंग-जिन" की मूर्ति के अभाव में शोकाकुल अवश्य बनी रही। वह उसे शताब्दियों के बाद भी विस्मृत नहीं कर सकी थी तथा विभिन्न राजवंशों की पृष्ठ-पोषकता के कारण उस समय भी जैनधर्म कोने-कोने तक प्रचारित बना रहा। जब खारवेल कलिंग की राजगद्दी पर बैठा, तभी उसने अपनी पूर्ण शक्ति के साथ मगध पर आक्रमण किया और जैन-संस्कृति की प्रतीक एवं राष्ट्रिय गौरव के उस पावन-प्रतीक कलिंग-जिन को मगध-सम्राट वहसतिमित्त (वृहस्पतिमित्र) से वापिस लेकर कलिंग में उसकी विशाल-समारोह के साथ पुनर्प्रतिष्ठा की २६ |
खारवेल-शिलालेख में यद्यपि यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि कलिंग-जिन किस तीर्थंकर की मूर्ति थी ? कुछ इतिहासकारों ने उसे आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव की मूर्ति बतलाया है। यह असम्भव भी नहीं क्योंकि प्राचीन जैनागमों में तीर्थंकर ऋषभ का कलिंग के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बतलाया गया है। ऋषभ के एक पुत्र का नाम कलिंग था। अतः उसी के नाम पर उस भूभाग का नाम भी कलिंग रखा गया था। कलिंग-जिन की मूर्ति मगध में लगभग दो-ढाई सौ वर्षों तक सुरक्षित रह जाने से यह भी अनुमान लगाना सहज है कि मगध के राजवंश भी वैसे ही जैनधर्म के उपासक तथा जैन-संस्कृति के संरक्षक थे, जैसे कि कलिंग के राजवंश । कलिंग पर नन्दराज के आक्रमण के पूर्वकाल में भी वहीं ऋषभदेव की पूजा-अर्चना सार्वजनिक रूप में की जाती रही होगी।
कलिंग-जिन की मूर्ति के उक्त उल्लेख से इस तथ्य पर भी प्रकाश पड़ता है कि ई.पू. की चौथी सदी में कलिंग एवं मगध में जैन-मूर्ति-पूजा प्रचलन में थी, तथा कलिंग में जैन-मूर्ति-निर्माणकला का भी पर्याप्त विकास हो चुका था।
प्राच्यविद्याविद् पं. भगवानलाल इन्द्र जी ने भी संभवतः सर्वप्रथम खारवेल-शिलालेख का अध्ययन कर तथा उसमें प्रारंभ में उत्कीर्णित जैन-संस्कृति के मूलमंत्र णमोकार-मंत्र के प्रारम्भिक चरण के साथ-साथ ही उसके ४ प्रतीकों का नामोल्लेख कर सिद्ध किया कि
२५. खारवेल-शिलालेख पं. १५-१६ २६. वही पं. ११-१२