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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख हैं और न ही किसी का ध्यान भी उस ओर जा रहा है।
बहुत सम्भव है कि कुछ विशिष्ट कारणों से आचार्य भद्रबाहु गिरनारपर्वत की यात्रा करते हुए ससंघ दक्षिण की ओर मुड़े हों। और वहाँ की एक गुफा का उन्होंने अपने नवदीक्षित भक्त शिष्य (सम्राट) चन्द्रगुप्त की यात्रा-स्मृति में "चन्द्रगुफा" नाम घोषित कर दिया हो ? यह तथ्य चिन्तनीय है।
हाथीगुम्फा-शिलालेख के अनुसार सम्राट खारवेल (ई.पू. द्वितीय सदी) ने अपनी दिग्विजय के प्रसंग में दक्षिणापथ के कई राज्यों पर विजय प्राप्त की थी। यद्यपि उस समय के भूगोल की राजनैतिक सीमा-रेखाएँ स्पष्ट नहीं है किन्तु खारवेल-शिलालेख में जिस दक्षिणापथ पर विजय प्राप्त करने की बात कही गई है, उसमें वे ही देश आते हैं, जिन्हें वर्तमान के भूगोल-शास्त्रियों ने आन्ध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिल, केरल एवं सिंहल (श्रीलंका) देश कहा है। खारवेल के शिलालेख में जो एक विशेष बात कही गई है वह यह, कि उसने (खारवेल ने) अपनी दिग्विजय के क्रम में दक्षिणापथ के पिछले १३०० वर्षों से चले आये एक शक्तिशाली तमिल-संघात का भी भेदन कर दिया था। इस संघात अथवा महासंघ में तत्कालीन सुप्रसिद्ध राज्य-चोल, पाण्ड्य, सत्यपुत्र, केरलपुत्र तथा ताम्रपर्णी (सिंहल) के राज्य सम्मिलित थे तथा यह महासंघ "तमिल-संघात" (United States of Tamil) के नाम से प्रसिद्ध था।
मेरी दृष्टि से खारवेल का यह आक्रमण केवल राजनैतिक ही नहीं था, बल्कि जैनधर्म के विरोधियों ने जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में उक्त तमिल-महासंघ तथा असिक, रठिक, भोजक एवं दण्डक रूप महाराष्ट्र-संघ के माध्यम से जो कुछ गतिरोध उत्पन्न कर दिये थे, खारवेल ने उनसे क्रोधित होकर उन दोनों महासंघों को कठोर सबक सिखाया और उन संघीय राज्यों में जैनधर्म को यथावत् विकसित एवं प्रचारित होने का पुनः अवसर प्रदान किया। उसी का सुफल है कि तमिल, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र ने आगे चलकर जैनधर्म की जो बहुमुखी सेवा की, वह जैन-इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय बन गया। इन प्रान्तों का प्रारम्भिक जैन-साहित्य एक ओर जहाँ स्थानीय बोलियों में लिखित साहित्य का मुकुटमणि माना गया, वहीं वह (साहित्य) कन्नड़ जैन कवियों द्वारा लिखित चतुर्विध अनुयोग-साहित्य का भी सिरमौर माना गया। साहित्य के इतिहासकारों की मान्यता है कि प्रारम्भिक तमिल, कन्नड़ एवं मराठी बोलियों को आद्यकालीन जैन-लेखकों ने ही काव्यभाषा के योग्य बनने का सामर्थ्य प्रदान किया है। इस प्रकार सम्राट खारवेल द्वारा स्थापित उक्त परम्परा कर्नाटक में १०वीं-११वीं सदी तक अन्तर्वर्ती जल-स्रोतों के प्रवाह के समान अवाध गति से चलती रही।
यह भी विचारणीय है कि खारवेल ने कलिंग में जो विराट जैन-मुनि-सम्मेलन बुलाया था,क्या वह "तमिरदेह संघात" के द्वारा की गई जैनधर्म के हास एवं जैनागमों की क्षतिपूर्ति के विषय में विचारार्थ तथा आगे के लिये योजना-बद्ध सुरक्षात्मक कार्यक्रमों के संचालन की दृष्टि से तो आयोजित नहीं था ? अन्यथा, वह देश के कोने-कोने से, सभी दिशाओं-विदिशाओं से लाखों की संख्या (सत-सहसानि) में महातपस्वी मुनि-आचार्यों