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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
(अर्थात् भारतवर्ष) कहा गया है। अतः हमारे देश का संवैधानिक नाम यदि “भारतवर्ष” रखा जाय, तो वह अधिक प्रामाणिक एवं न्याय संगत होगा ।
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उनका प्रस्ताव सुनकर तत्कालीन वाइसराय एवं गवर्नर-जनरल लार्ड माउण्टवैटन, पं. जवाहरलाल नेहरू, श्री राजगोपालाचार्य, श्री विश्वनाथ दास, डॉ. कैलाशनाथ काटजू, सरदार वल्लभभाई पटेल प्रभृति वरिष्ठ नेतागण उदयगिरि-खण्डगिरि ( भुवनेश्वर) पहुँचे । पूर्वोक्त शिलालेख की दशवीं पंक्ति का विशेष अध्ययन किया और दिल्ली वापिस लौट आये और अगले दिन ही उन इतिहासकार सदस्य महोदय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया तथा तालियों की गड़गड़ाहट के मध्य सभी ने प्रमुदित मन से उस पर अपनी स्वीकृति प्रदान की ।
खारवेल - शिलालेख एवं उसका ऐतिहासिक महत्व
दुर्भाग्य से हम लोग खारवेल जैसे स्वदेशाभिमानी, मातृभूमि भक्त तथा जैन समाज के महान् यशस्वी सपूत, मुनि-सेवक एवं जिनवाणी भक्त कलिंगाधिपति जैन चक्रवर्ती सम्राट खारवेल को भूलते जा रहे थे । किन्तु धन्य हैं वे आचार्य-प्रवर विद्यानन्द जी मुनिराज, जिन्होंने देशहित एवं समाजहित में उस खारवेल के नाम एवं कार्यों से सभी को परिचित कराना अनिवार्य समझा। अतः पिछले लगभग चालीस वर्षों से विविध दृष्टिकोणों से उसके मूल शिलालेख और तत्सम्बन्धी साक्ष्यों का उन्होंने लगातार गहन अध्ययन तथा चिन्तन कर उसके महान् व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उजागर करने का दृढ़ संकल्प किया, जो साकार हुआ दिनाँक २६.११.६८ के प्रातःकाल, जब उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री जानकीबल्लभ जी पटनायक के करकमलों द्वारा कुन्दकुन्द भारती (दिल्ली) के प्रांगण में खारवेल - भवन का शिलान्यास किया गया। इस दो मंजिले विशाल भवन का शीघ्र ही निर्माण होने जा रहा है, जो खारवेल - शिलालेख के बहुआयामी मूल्यांकन के साथ-साथ भारत के उच्चस्तरीय प्राकृत एवं जैन-विद्या के शोध केन्द्र के रूप में कार्य करेगा।
जब मैं प्राच्यकालीन जैन इतिहास एवं संस्कृति पर विचार करता हूँ, तो सोचता हूँ कि यदि ई.पू. चौथी सदी के मध्यकाल में मगध के द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के समय आचार्य भद्रबाहु ने दक्षिण भारत में ससंघ विहार न किया होता, तो श्रमण संस्कृति का इतिहास संभवतः वैसा न बन पाता, जैसा कि आज उपलब्ध है । यह तो सर्वविदित ही है कि आचार्य भद्रबाहु ने दुष्काल की भीषणता तथा दिगम्बरत्व की हानि का विचार कर मगध से दक्षिण भारत की ओर विहार किया । यद्यपि हमारा इतिहास इस विषय पर मौन है कि उनके विहार का मार्ग कहाँ-कहाँ से होकर रहा होगा ? वस्तुतः यह स्वतंत्र रूप से एक गहन विचारणीय विषय है ।
किन्तु मेरी दृष्टि से वे, पाटलिपुत्र से विहार कर वर्तमानकालीन उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात एवं महाराष्ट्र होते हुए कर्नाटक के कटवप्र नाम के एक निर्जन वन में पधारे थे। चूँकि भद्रबाहु के जीवन का वह अन्तिम चरण था, अतः उन्होंने, जैसा कि