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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख भोजपत्र पर लिखित कुछ भारतीय पाण्डुलिपियाँ पूना, लाहौर, कलकत्ता, तिब्बत, लन्दन, आक्सफोर्ड, वियेना एवं बर्लिन के ग्रन्थागारों में सुरक्षित हैं, किन्तु प्रो.एस. एम. कात्रे के अनुसार वे १५वीं सदी ईस्वी के पूर्व की नहीं हैं |
ताड़पत्र-प्रयोग
प्राचीन काल में पाण्डुलिपियों के लिए ताड़पत्र सबसे अधिक सुविधा जनक माना गया। क्योंकि एक तो वह टिकाऊ होता था, दूसरे, उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई पर्याप्त होती थी। पत्तों की दोनों नसों के बीच के भाग को आवश्यकतानुसार काट कर उन्हें पानी में भिगो दिया जाता था। फिर, उन्हें सुखाकर कौंड़ी, शंख या किसी चिकने पत्थर से रगड़कर उसे चिकना बना-बनाकर, उस पर काजू के तेल का लेप किया जाता था। तत्पश्चात् किसी नुकीले उपकरण से उस पर खोद-खोदकर लिखा जाता था। इस प्रक्रिया में काष्ठपट्टिका पर अक्षर खोदकर स्याही लिपे हुये ताड़पत्र पर उन्हें छाप दिया जाता था, यह पद्धति उत्तर-भारत में प्रचलित थी। लेखनी से ताड़पत्र पर पहले अक्षर उकेर कर फिर उनमें काला रंग भर दिया जाता था, यह प्रक्रिया दक्षिण भारत में प्रचलित थी। ५
चीनी-यात्री ह्यनत्सांग के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद ई. पू. तीसरी सदी में जब वैशाली में द्वितीय बौद्ध-संगीति हुई, तब त्रिपिटिक का लेखन ताड़-पत्रों पर ही किया गया था । किन्तु वे मूल पाण्डुलिपियाँ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं।
वर्तमान में भारत में जो भी ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियाँ मिलती हैं, वे ११वी १२वीं सदी के पूर्व की नहीं हैं । इसके पूर्व की पाण्डुलिपियाँ या तो नष्ट हो गईं, अथवा विदेशों में ले जाई गईं होंगी । वस्तुतः यह गम्भीर खोज का विषय है।
ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों का आकृति-मूलक वर्गीकरण
ताड़पत्र दो प्रकार के होते हैं-(१) खरताड़, जो अल्पकाल में ही चटकने लगता है। वह राजस्थान, गुजरात एवं सिन्ध में पाया जाता है, और (२) श्रीताड, जो म्यांमार (बर्मा) एवं दक्षिण-भारत में पाया जाता था और पाण्डुलिपियों के लिखने के लिये अनुकूल माना जाता था।
दशवैकालिक हारिभद्रीय-टीका में ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों की रोचक जानकारी दी गई है। उसमें उनका ५ प्रकार से आकृतिमूलक-वर्गीकरण किया गया है
(१) गंडी- जो चौड़ाई, लम्बाई एवं मोटाई में समान (Rectangular) हो।
(२) कच्छपी- जो कछुवे के समान मध्य में विस्तीर्ण तथा प्रारम्भ एवं अन्त में 8. Introduction to Indian Textual Criticism P.5 ५. पाठालोचन के सिद्धांत- कन्हैया सिंह पृ. २४२ ६. वही० ७. वही० ८. वही. ६. प्रा.भा.श्र.सं.पृ.५