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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
पतली हो। (३) मुष्टि- जो लम्बाई में चार अंगुल अथवा वृत्ताकार हो अथवा चार अंगुल
लम्बी तथा चार कोनों वाली हो। (४) संपुटक- जो दो काष्ठ-फलकों में बँधी हुई हो। और, (५) सृपाटिका/सम्पुटफलक अथवा छेद-पाटी – जो पतली किन्तु विस्तृत हो
और जो आकार में चोंच के समान हो।
ताड़पत्र की इन पाण्डुलिपियों को "पोत्थयं" भी कहा गया है- जिसका अर्थ है-पोथी अथवा पुस्तक अथवा धार्मिक ग्रंथ ।
राजप्रश्नीय-सूत्र में ताड़पत्रीय पाण्डुलिपि की संरचना के विषय में सुन्दर वर्णन मिलता है। उसके अनुसार सूर्याभदेव के व्यवसाय-सभा-भवन (Auditorium for Business
Meetings) में एक ऐसी पाण्डुलिपि सुरक्षित थी, जिसके आगे-पीछे के आवरण पृष्ठ (पुढे) रिष्टरत्न से जटित थे, जिसकी कम्बिका (ऊपर तथा नीचे की ओर लगी लकड़ी की पट्टी) रिष्ट नामक रत्नों से जटित थी, जो तप्तस्वर्ण से बनें डोरे, नाना मणि जटित ग्रन्थी, वैडूर्य-मणि द्वारा निर्मित लिप्यासन (अर्थात् दवात), रिष्ट नामक रत्न द्वारा निर्मित उसका ढक्कन, शुद्ध स्वर्ण-निर्मित श्रृंखला, रिष्टरत्न द्वारा निर्मित स्याही, बजरत्न द्वारा निर्मित लेखनी और रिष्टरत्नमय अक्षरों द्वारा लिखित धर्मलेख से युक्त थी १० ।
___ उक्त वर्णन में अतिशयोक्ति प्रतीत नहीं होती। क्योंकि वर्तमान में भी उसी प्रकार की रत्नजटित कुछ कर्गलीय अमूल्य जैन पाण्डुलिपियाँ जैन शास्त्र-भण्डारों, एवं जैनेतर पाण्डुलिपियाँ जैनेतर शास्त्र-भण्डारों में सुरक्षित हैं।
ताड़पत्र की प्रतियाँ आकृति में छोटी-बड़ी सभी प्रकार की मिलती हैं। उसकी सबसे लम्बी प्रति आचार्य प्रभाचन्द्र कृत प्रमेयकमलमार्तण्ड की है, जो जैन-न्याय का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ माना गया है। वह ३७ इंच लम्बी है, जो पाटन (गुजरात) के एक श्वेताम्बर जैन शास्त्र-भण्डार में सुरक्षित है।
जैन समाज जैन-पाण्डुलिपियों को आक्रान्ताओं से किस प्रकार सुरक्षित रखती थी, इसका एक उदाहरण श्रवणबेलगोल के भट्टारक स्वामी चारुकीर्तिजी ने हमारी विद्वत्परिषद् के अधिवेशन (१६ दिसम्बर २०००) के अवसर पर दिया था। षट्खण्डागम की धवला, महाधवला एवं जयधवला की टीकाएँ ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों में लिखित थी तथा वे श्रवणबेलगोल के मठ में सुरक्षित थीं किन्तु किन्हीं विशिष्ट कारणों से उन्हें मूडबिद्री-मठ में स्थानांतरित कर दिया गया था। उनको अति सुरक्षित रखने की दृष्टि से वहाँ के मुख्य मन्दिर की मुख्यवेदिका के ऊपर लगी हुई एक ठोस लकड़ी को कुछ खोकला कर उसी में उनकी पाण्डुलिपियों को रख दिया गया था। कुछ वर्षों के बाद ही अगली पीढ़ी की स्मृति से वे ओझल हो गई।
१०. राजप्रश्नीय सूत्र सं.१८५ व्यावर-संस्करण पृ. १०३–१०४