Book Title: Jain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Fulchandra Shastri Foundation

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Page 22
________________ जैन - पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख प्रेस-कॉपी भी "पाण्डुलिपि " कही जाने लगी । जैन-परम्परा में लेखन-कार्य हेतु पूर्वोक्त आधारभूत सामग्रियों में से चमड़ा, ईंट एवं लोहा छोड़कर अल्पाधिक मात्रा में उक्त प्रायः समस्त सामग्रियों का उपयोग किया गया है । इन उपकरणों के उल्लेख प्राचीन जैन-ग्रन्थों में एक साथ एक ही स्थान पर नहीं मिलते, बल्कि प्रासंगिक अथवा आनुषंगिक रूप से यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। उनमें इन तथ्यों की स्थिति लगभग वैसी ही है, जिस प्रकार कि समुद्रतल में छिपे मोतियों अथवा समुद्री या नदी-तटों की बालू में बिखरे हुये सर्षप-बीजों की । फिर भी, इन सामग्रियों की खोज जितनी कठिन है, उतनी ही रोचक एवं मनोरंजक भी । (एतद्विषयक कुछ संदर्भ-संकेत आगे प्रस्तुत किये जा रहे हैं)। इस दिशा में अभी एकबद्ध विस्तृत कार्य नहीं हो सका है, जब कि जैन-पाण्डुलिपियों की गौरवशाली ऐतिहासिक परम्परा को विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने की महती आवश्यकता है। I यह परम गौरव का विषय है कि पाण्डुर-वर्ण के पाषाण पर उत्कीर्णित एक प्राकृत-शिलालेख भारत की सम्भवतः सर्वप्रथम लिखित पाण्डुलिपि है, जिसे भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के ८४ वर्ष बाद अर्थात् वीर निर्वाण संवत् ८४ ( ई०पू० ४४३) में उन्हीं की स्मृति में उनके किसी श्रद्धालु समाज द्वारा ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण कराया गया था। इस लेख में कुल ४ पंक्तियाँ हैं, जो पाषाण के तीन ओर उत्कीर्णित हैं । इस प्रकार आधार-सामग्री, लिपि-शैली एवं वीर - निर्वाण संवत् के स्पष्ट उल्लेख होने के कारण वह अभिलेख न केवल जैन समाज के लिये गौरव का विषय है, अपितु हमारे राष्ट्र के लिये ऐतिहासिक महत्व का एक प्रामाणिक दस्तावेज भी । जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है, वह अभिलेख अजमेर (राजस्थान) के पास "वडली” नामक ग्राम में मिला है। काल के प्रभाव से वह कुछ क्षतिग्रस्त हो चुका है, फिर भी, महामान्य पुरातत्ववेत्ता तथा प्राच्य लिपि-विद्या के महापण्डित पं. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा तथा डॉ. राजबलि पाण्डेय ने सावधानी पूर्वक पढ़कर उसे भारत का प्राचीनतम ऐतिहासिक अभिलेख बतलाया है । कलिंग के भीषण युद्ध के बाद, राजपरिवार में अकेली जीवित तथा क्रोध से तमतमायी राजकुमारी अमीता की तीव्र - भर्त्सना से मर्माहत होकर जब सम्राट अशोक का एकाएक हृदय-परिवर्तन हो गया, तभी उसने अपनी रणनीति बदलकर "रणयुद्ध" के स्थान पर "धर्मयुद्ध" का नारा लगाया । तत्पश्चात् विश्वशान्ति की कामना से उसने सर्वसुलभ पीताभ-धवल-पाषाण पर प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों में अपने मंगलकारी विचारों अथवा अध्यादेशों को टंकित कराकर भारत भर में उन्हें प्रचारित कराया था। १. वीराय भगवत चतुरासितिवस... प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह खण्ड प्रथम (जयपुर, १६८२) पृ. १८०-१८१

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