Book Title: Jain Jyotirgranth Sangraha
Author(s): Kshamavijay
Publisher: Mulchand Bulakhidas Shah
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४ ।जैनज्योतिर्मन्थसंग्रहे हारिभद्रीया लमशुद्धिः । धणिट्ठा । उत्तरफग्गुणि पुस्सं रेवई सूराइसु कमेणं ॥ ४९ ॥ अद्धप्पहरो कुलिओ उवकुलिओ असुहकालहोरा य । एए वि हु ३ दिणदोसा वजेअव्वा सुहे कजे ॥ ५० ॥ कुजसिअरविबुहसणिससिगुरुवारेसु विवजणिजो य । अद्धप्पहरो बि-ति-चउँ-पंच-छ-सत्त-टुमो कमसो ॥ ५१ ॥ दिणवाराओ जइमा सणिगुरुणो तइयमद्धपहरेसु । ६ कुलिओ तह उवकुलिओ जहसंखेणं मुणेयन्वो ॥ ५२ ॥ आ-सु-बु-सो
स-गुमं तं वलयं जाणाहि कालहोरत्ति । अड्डाइज्जा घडिया दिणवाराओ गणसु पढमं ॥ ५३ ॥ संज्झागयं धूमियमालिंगियदड्डेविद्धसोवर्गहं । ९ लत्तापाएकग्गलदूसिअं इअ दुट्ठरिक्खाइं ॥ ५४ ॥ संज्झागयं रविगर्य विडेरं सग्गहं विलंब चै । राहुहयं गहभिन्नं विवजए सत्त नक्खत्ते ॥५५॥
संज्झागयंमि कलहो आइच्चगए न होइ निव्वाणी । विडेरे परविजओ १२ सगहमि अ विग्गहो होइ ।। ५६ ॥ दोसो असंगयत्तं होइ कुभुत्तं विलंबिनक्खत्ते । राहुहयम्मि अ मरणं गहमिन्ने सोणिअग्गालो ॥५७ ॥
अत्थमणे संज्झागय रविगय जहि ठिओ उ आइच्चो। विडेरमवद्दारिय १५ सग्गहं कूरग्गहठिअं तु ॥ ५८ ॥ रविरिक्खपिट्टओ जं विलंबि राहुहयं
जहिं गहणं । मज्झेणं जस्स गहो वच्चइ तं होइ गहमिन्नं ॥ ५९॥
समिंगलाण पुरो धूमियमालिंगियं च तजुत्तं । आलिंगियस्स पच्छा जं १८ रिक्खं तं भवे दद्धं ॥ ६० ॥ तिरियं सत्तसलाया उडाओ सत्त ताण
मज्झेणं । उवरिमपढमसलागाण कत्तिया तयणु सेसाणि ॥ ६१ ॥
दाउं नक्खत्ताई दिज गहे तद्दिणंमि जो जत्थ । तो जोइज्जा वेहं गण२. यवरो य चंदरिक्खस्स ॥ ६२ ॥ जइ एगसलागाए एकदिसि हुज
चंदनक्खत्तं । बीअदिसाए हुज्जा को वि गहो तो भवे वेहो ॥ ६३ ॥
उत्तरसाढापाए चउत्थए सवणपढमघडिआसु । चउसु य अभिई तत्थ २४ ठिए गहे रोहिणी वेहो ॥ ६४ ॥ पंचट्ठचउदसट्ठारइगुणवीसदुवीसतेवीसे । चउवीसमे अ रिक्खे उवग्गहो सूररिक्खाओ ॥ ६५ ॥ रवि. मंगल-गुरु-सणिणो दुवालेसं तईंछ?अट्ठमयं । निअरिक्खाओ कमेणं २७ रिक्खं लत्तंति अग्गिमयं ॥ ६६ ॥ बुह-सुक-राहु-पुन्निमससिणो पिटेण
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