________________ जैन कर्मवाद प्र.299. यदि समस्त जीवों में समान आत्म माना जाये तो प्रश्न होगा कि भगवान शक्ति है तो फिर संसार में किस आधार पर जीवों को मूर्ख-विद्वान्, अमीर-गरीब, राजा- सुखी-दुःखी, विपन्न-सम्पन्न बनाता रंक, रोगी-निरोगी आदि भेद है। उसे सर्वशक्तिसम्पन्न होने से क्यों दिखायी देते हैं? सभी को सुखी, सम्पन्न, विद्वान्, उ. इस विश्व में कर्म नामक एक शक्ति है यशस्वी ही बनाना चाहिये। फिर भला जिसके कारण अनन्त शक्ति, सौन्दर्य, किसी को दुःखी, विपन्न, मूर्ख एवं ज्ञान, साधना सम्पन्न होने पर भी निंदा का पात्र क्यों बनाता है ? जीवों में सुखी-दुःखी, नारकी- इसके उत्तर में यह तर्क दिया जाये तिर्यंच-मनुष्य देव आदि अनेक भेद कि वह जीव के कर्मानुसार दृष्टिगत होते हैं। इसी कर्म शक्ति को सुख-दुःख, बुद्धि, धन, यश, साधन वेदान्त दर्शन में माया या देता है तो स्पष्ट ही है कि ईश्वर/ अविद्या, सांख्य दर्शन में प्रकृति, भगवान भी कर्मानुसार ही जीव को वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट, मीमांसक सुख-दुःख देता है और कर्मसत्ता में दर्शन में अपूर्व कहा गया है। विभिन्न वह किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप * 'स्थानों पर इसे भाग्य, दैव, पुण्य-पाप करने में असमर्थ है। के रूप में व्याख्यायित किया गया है। जैन दर्शन में ईश्वरीय सत्ता को मध्य प्र.300. महाराजश्री! हम सुनते हैं और में न लाकर सीधे-सीधे कर्म सत्ता की कहते भी हैं कि परमात्मा/ प्ररूपणा एवं व्याख्या की गयी है। भगवान जैसा चाहते हैं, वही होता प्र.301. कर्म तो अदृश्य तत्त्व है, फिर है तो फिर कर्म का अस्तित्व कैसे __ इसकी सिद्धि किस प्रकार संभव है? उ. संसार में ऐसी अनेक विचित्रताएँ यदि भगवान को विश्व का नियंता, दिखाई देती हैं, जिनका कोई कारण कर्ता, धर्ता और सुख-दुःख में कारण नजर नहीं आता है परन्तु यह भी ***************** 103 ********************* माने? ..