________________ अज्ञानी लोग कर्मयुक्त देव-देवियों सिद्धान्त समान है। हम तो सभी में को मुक्त मान रहे हैं और सिद्धों को श्रद्धा रखते हैं। वंदना और अर्चना अमुक्त समझ रहे हैं। करते हैं। इन दस भेदों का विवेचन तीन में हो ऐसा कहने से मांस, मदिरा, यज्ञ, जाता है। बलि आदि के समर्थक धर्मों की भी 9-10 भेद देव सम्बन्धी मिथ्यात्व, स्वीकृति का दोष लगता है। - 7-8 गुरु सम्बन्धी मिथ्यात्व एवं 1-6 (3)आभिनिवेशिक-अपने सिद्धान्त/ भेद धर्म सम्बन्धी मिथ्यात्व है। मत को गलत जानते हुए भी हठ, इसलिये संक्षिप्त में कहा जाय तो अभिमान और आग्रहपूर्वक उसे सुदेव-सुगुरु-सुधर्म को कुदेव पकड़े रखना आभिनिवेशिक कुगुरु-कुधर्म मानना एवं कुदेवादि मिथ्यात्व कहलाता है। अपनी को सुदेवादि मानना मिथ्यात्व है। गलती को जानते हुए भी न प्र.361.पाँच प्रकार के मिथ्यात्व कौनसे हैं? छोड़कर रोह गुप्त निन्हव बना। (1)आभिग्रहिक- सही बात को जाने (4)सांशयिक- सुदेव-गुरु-धर्म के . बिना पक्षपातपूर्वक एक सिद्धान्त संदर्भ में संदेह करना सांशयिक का आग्रह करना एवं अन्य पक्ष व मिथ्यात्व कहलाता है। जमाली ने सिद्धान्त का खण्डन करना . प्रभु वाणी में संशय करके कर्म आभिग्रहिक मिथ्यात्व है। अनेक बांधे। लोग सम्यग् तत्त्व को जाने बिना (5)अनाभोगिक- ज्ञानावरणीय कर्म कट्टरता प्रदर्शित करते हुए कहते के प्रबलोदय से एकेन्द्रिय आदि हैं कि हमारे भगवान, गुरु एवं असंज्ञी तथा विशेष बोध से रहित हमारा धर्म ही सच्चा है। संज्ञी जीवों में तीव्र अज्ञान के (2)अनाभिग्रहिक- तत्त्व-बुद्धि के कारण जो मिथ्यात्व होता है, वह द्वारा परीक्षण किये बिना सभी धर्मों, अनाभोगिक मिथ्यात्व कहलाता है। धर्मगुरुओं को समान मानना प्र.362. जो जैसा है, वैसा मानने पर अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता मिथ्यात्व का दोष नहीं लगता है है। जैसे कई लोग कह देते तो लौकिक देवी व देवताओं को हैं - सभी देव, गुरु, धर्म, मत, उस रूप में मानने में भी कोई * * * 126