________________ आज ज्ञान भण्डारों में प्राप्त साहित्य में कर्मचन्द बच्छावत, अगरचन्द से सर्वाधिक साहित्य खरतरगच्छ के नाहटा भंवरलाल नाहटा आदि विद्वान् आचार्यों के द्वारा आलेखित है। अनेक श्रावक श्राविका खरतरआगमिक शास्त्र के क्षेत्र में आचार्य गच्छ की अनमोल विरासत है। अभयदेवसूरि, समयसुन्दरजी के नाम एक समय में शत्रुजय, सम्मेतशिखर, प्रमुख हैं तो मौलिक शास्त्र रचना में गिरनार, नाकोड़ा, खंभात, पाटण, जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिन कापरड़ा, आगासी, आयड आदि वल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनपति अनेक तीर्थ प्रखर खरतरगच्छ की सूरि, जिनप्रभसूरि, समयसुन्दरजी, परम्परा का अनुगमन करते थे। देवचन्द्रजी ने महत्वपूर्ण कार्य किया। प्र.604.खरतरगच्छ को राजगच्छ क्यों जिनवल्लभसूरि जिनहर्षसूरि, समय- कहा जाता है? सुंदरजी, देवचंद्रजी, आनंदघनजी, उ. राजा-महाराजाओं पर विशिष्ट प्रभुत्व क्षमाकल्याणजी. कवीन्द्रसागरसूरि, होने के कारण खरतरगच्छ को मणिप्रभसागरजी ने काव्य जगत में राजगच्छ कहा जाता है। अपना स्थान बनाया तो जिनवल्लभ- आचार्य जिनेश्वरसूरि ने पाटण नरेश सूरि, जिनदत्तसूरि, जिनकुशलसूरि ने दुर्लभ सम्राट् को प्रतिबोधित किया था नूतन जैन बनाकर संघ का विस्तार तो जिनवल्लभसूरि ने चित्तौड़ नरेश किया। नरवर्म को धर्म-साधना का रहस्य श्री जिनपद्मसूरि ने 'अर्हन्तो भगवन्त समझाया था। इन्द्र महिता' स्तुति की एवं विनय- प्रथम दादा जिनदत्तसूरि के प्रति के प्रभोपाध्याय ने श्री गौतम स्वामी के अजमेर नरेश अर्णोराज, त्रिभुवनगिरि रास की रचना की, जो सम्पूर्ण अधिपति कुमारपाल आदि जिनशासन में बिना किसी गच्छ भेद राजा श्रद्धान्वित थे। के चलती है। मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि को महाकवि धनपाल, कविवर ठक्कर दिल्लीपति सम्राट् मदनपाल ने फेरु, पद्मानंद, थाहरूशाह भंसाली, दिल्ली में प्रवेश करवाकर उनके मुख सेठ श्री मोतीशा नाहटा, अमीचंद से जिनवाणी का रसपान किया था तो नाहटा, भुवन पाल डोसी, पल्ल कवि, जिनपतिसूरि ने आशिका नरेश