Book Title: Jain Jivan Shailee
Author(s): Manitprabhsagar, Nilanjanashreeji
Publisher: Jahaj Mandir Prakashan

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Page 343
________________ 44. परीषह - कष्ट 45. पर्युपासना- हर तरह से सेवा, पूजा, सत्कार, उपासना / 46. पर्षदा - सभा / 47. प्रच्छन्न - छिपा हुआ / 48. प्रत्याख्यान- पच्चक्खाण, नियम, मर्यादा। 49. प्रमाद - यथासमय में कार्य आदि न करना और असमय में करना / 50. प्रर्माजना - अच्छी तरह देखना, साफ करना / जैन मुनि आसन आदि बिछाने से पहले और किसी भी पदार्थ को रखने से पहले रजोहरण, डंडासने से भूमि स्वच्छ करते हैं ताकि किसी भी जीव की हिंसा न हो / 51. प्रव्रज्या - दीक्षा / 52. प्रासुक - जीव रहित भोजन-सामग्री। 53. भण्डमत्त-भाण्डोपकरण, बर्तन / 54. मत्सरता- ईर्ष्या, जलन / 55. मिथ्यात्व- गलत धारणा, विपरीत समझ / 56. यथाख्यात- तीर्थंकरों ने जैसा कहा, वैसा चारित्र / 57. युगलिक- एक साथ जन्म लेने वाला नर-नारी युगल | 59. रज्जू - लोक चौदह रज्जू प्रमाण है। असंख्य योजन का एक रज्जू / माप का एक भेद | 60. रति - सांसारिक भोगों में आनंद का भाव / 61. लौहपिण्डाग्नि- लोहे को जब बहुत तपाया जाता है तब लोहा अग्नि-वर्ण का हो जाता है / यानि लोहा और अग्नि एकाकार हो जाते हैं। 62. वर्ण्य - छोड़ने योग्य। 63. वलय - गोल / 63. वाचना. - देशना, प्रवचन, व्याख्यान। 64.विजातीय - विपरीत जाति वाला जैसे स्त्री के लिये पुरुष और पुरुष के लिये स्त्री। 65. वेदत्रिक - पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद, इन तीनों को एक साथ बताने वाली संज्ञा /

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