________________ कामना करना मैत्री भावना है। 'मित्ती मे सव्वभुएसू' यह मैत्री भावना का प्रथम सूत्र है। मैत्री भावना जाति, देश, कुल, गति की सारी संकीर्ण दीवारों को तोडकर सम्पूर्ण जीव सृष्टि में समाविष्ट हो जाती है। (2)प्रमोद भावना - तपस्वी के तप को, ज्ञानी के ज्ञान को, त्यागी के त्याग को, दानी के दान को देखकर प्रमुदित-प्रसन्न होना। पुनः पुनः उसकी प्रशंसा और अनुमोदना करना। पृथ्वीचन्द्र राजा गुणसागर केवली की अनुमोदना करते करते एवं पांच सौ तापस गुरु गौतम स्वामी की मन ही मन प्रशंसा करते हुए गुणठाणों में इतने आगे चढे कि केवलज्ञान उपलब्ध हो गया। (3)माध्यस्थ भावना- भलाई, हित एवं आत्म-कल्याण के लिये समझाने पर नहीं समझने वाले के प्रति तटस्थ भाव रखना माध्यस्थ भावना कहलाती है। पुत्र, शिष्य आदि को उनके हितार्थ बार-बार समझाने पर भी नहीं मानने पर क्रोध नहीं करके मध्यस्थ भाव रखना, नजर अंदाज करना। (4)कारुण्य भावना- धर्म से विमुख, हिंसक, दुःखी, असत्यभाषी जीवों के प्रति करुणा, दया का भाव रखना। ओह! ये जीव मनुष्य जीवन, जिनशासन और आत्म धर्म को. प्राप्त करके भी संसार में ही रचे-पचे हुए हैं, आखिर दुर्गति में जाना होगा। कामभोगों की दाहकता भव - भव जलाती और रूलाती रहेगी।