________________ भी आपके प्रमुख ग्रंथ हैं। (4)आचार्य जिनवल्लभसूरि- श्री अभयदेवसूरि के पट्टधर विद्वद्वर्य आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि चारित्रनिष्ठ आचार्य थे। आपने तत्कालीन फैली शिथिलताओं पर चोट करते हुए संघपट्टक ग्रंथ का निर्माण किया। प्रतिभावान् सूरिजी ने पिण्डविशुद्धि प्रकरण आदि ग्रन्थों, उल्लासि आदि सैंकड़ों स्तोत्रों की रचना की। आपने दस हजार अजैनों को जैन बनाकर संघ का विस्तार किया। (5)दादा श्री जिनदत्तसूरि - जिनशासन और खरतरगच्छ के चमकते सितारे श्री जिनदत्तसूरि का जन्म धोलका नगर में वि.सं. 1132 में हुआ था। मात्र नव वर्ष की अल्पायु में श्री धर्मदेव गणि का पावन शिष्यत्व स्वीकार कर सोमचन्द्र मुनि बने। तीक्ष्ण प्रतिभा और अप्रतिम मेधा से अल्पकाल में ही संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण, आगम आदि का गहन अभ्यास कर मात्र चालीस वर्ष की आयु में आचार्य बने और जिनदत्तसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपका काल खरतरगच्छ के लिये 256 स्वर्णिम युग था। आपका उच्च चारित्र बल और आत्म साधना इतनी गजब की थी कि उससे प्रभावित होकर पांच पीर, बावन वीर और चौसठ जोगणियाँ आपको समर्पित हो गयी। विक्रमपुर में फैली महामारी का निवारण आपके द्वारा उपदिष्ट सप्त स्मरण से हो गया। गौतम गणधर के बाद एक साथ बारह सौ दीक्षाएँ आज तक मात्र आपके द्वारा सम्पन्न हुई, यह एक गौरवपूर्ण घटना है। एक लाख तीस हजार नूतन जैनों के एवं शताधिक गोत्रों के निर्माण में आपका उज्ज्वल कर्तृत्व सहज ही परिलक्षित होता है। आपने उपदेश रसायन, गणधर सार्ध शतक आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। अपभ्रश भाषा में आपने विपुल साहित्य लिखा। वि.सं. 1211 में अजमेर में स्वर्गगत होने पर अग्नि संस्कार में आपका चोलपट्टक, चद्दर और मुँहपत्ति नहीं जली जो आज भी जैसलमेर के ज्ञान भण्डार में दर्शनार्थ विद्यमान हैं। (6)मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि - केवल छह वर्ष की अल्पायु में दीक्षित होकर मात्र आठ वर्ष की अल्प आयु में आचार्य पद पर *** * **