________________ हानि है? मणिभद्रजी, पद्मावती आदि देवकाँच और रत्न का अन्तर जान लेना, देवियों की आराधना क्यों? उन्हें यथार्थ रूप से समझ लेना उ. हकीकत तो यह है कि ये सभी सम्यक्त्व है। परन्तु जिसने रत्न को देव-देवी परमात्मा के प्रति पूर्ण जान कर पा लिया, वह भला कांच को समर्पित हैं, अतः उनकी आराधना क्यों चाहेगा? अर्थात् वीतरागी देवों नहीं अपितु बहुमान-सम्मान किया को जानने के बाद भला कौन जाता है और शासन-विस्तार की राग-द्वेष युक्त देवों में श्रद्धान्वित प्रार्थना की जाती है। होगा? अर्थात् कोई भी नहीं होगा। यदि परमात्म स्वरूप एवं वीतरागता यदि जानने पर भी विरूद्धाचरण के लक्ष्य को विस्मृत कर संसारकरता है तो इसका अर्थ है कि उसने साधनों की पूर्ति-वृद्धि हेतु आराधना व्यवस्थित एवं सम्यक् रूप से जाना की जाती है तो वह धर्म एवं सम्यक्त्वी एवं माना नहीं है। क्योंकि मिथ्यात्वी का लक्षण हो नहीं सकती / देव-देवी की उपासना करने का अर्थ प्र.364. सम्यक्त्व के लक्षण बताईये। है कि बोध का अभाव है। उ. सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म को उस रूप कोई किसी को कुछ नहीं दे सकता। में मानना सम्यक्त्व है। जो जैसा है, निमित्त होना अलग बात है। दूसरी वैसा मानना सम्यक्त्व कहलाता है। बात यह है कि सम्यक्त्वी कभी भी 'तमेव सच्चं निसंकं जं जिणेहिं मिथ्यात्वी से द्वेष नहीं करता है, बल्कि पवेइयं / ' जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित धर्म में निःशंक, सन्देह रहित होना वह भी सम्यक्त्व को प्राप्त करें, यह सम्यक्त्व कहलाता है। सम्यक्त्व को भावना रखता है। तीसरी बात यह है श्रद्धा, समकित, रुचि भी कहा जाता कि सम्यक्त्वी पुत्र, धन, सत्ता, यश है। शास्त्रों में इसके पाँच लक्षण कहे प्राप्ति की नहीं, अपितु जो कुछ है, गये हैं, जिससे व्यवहार में सम्यक्त्वी उनके भी त्याग की कामना करता है को जाना जा सकता है। और जो स्वयं वीतराग नहीं हैं, (1)उपशम- मिथ्यात्व मोहनीय का मोहाधीन हैं, वे भला वीतरागता का उपशमन होना। जिसके साथ वैर वैभव कैसे दे सकते हैं? विरोध हो, उससे क्षमा का प्र.363.तो फिर अपने यहाँ भैरूजी, आदान-प्रदान करना। तत्त्वत्रयी