________________ क्योंकि मैं ही तो कमाता हूँ। कमाना अलग बात है और अपने हाथों से उसका सदुपयोग करना नितान्त दूसरी बात है। (19) घर के महाराज, रसोइये एवं नौकर-चाकर से कहना कि तुम ही वोहरा दिया करो। यह उस स्थिति में ठीक है, जब घर में कोई भी सदस्य न हो। जब भी मुनि आये तब आप यदि घर में हैं तो स्वयं ही बढते-चढतेपरिणामों के साथ वोहराने का लाभ प्राप्त करना चाहिये। स्वयं के हाथों से वोहराने में जो आनंद मिश्रित बहुमान का भाव आ सकता है, वह भृत्यवर्ग के वोहराने में कहाँ? (20) साधु के निमित्त कोई पदार्थ निर्मित न करे। वह लाभ का नहीं, अपितु स्व–पर अहित का मार्ग है परन्तु ग्लान, वृद्ध आदि के लिये बनाना जिनाज्ञापूर्वक उभयहित का मार्ग है क्योंकि वह संयमी को साधुता एवं समाधि में स्थिर करता है। (21) गैस के दो चुल्हों में से एक चुल्हा जल रहा हो, तब भी मुनिवर बंद चुल्हे पर रहा हुआ आहार ग्रहण नहीं करते हैं अतः उसके विवेक की आवश्यकता रहती है। (22) जिस समय मुनिवर आहार गवेषणार्थ पधार रहे हो अथवा आते हुए देखा हो अथवा 'धर्मलाभ' शब्द सुनाई दिया हो, तब श्रावक श्रद्धामिश्रितभावुकता से घर की सफाई करने लगते हैं, बिजली बंद अथवा चालू कर देते हैं, बीच में पड़े सचित्त पदार्थ युक्त बर्तन अथवा पानी की बाल्टी, सब्जी, फल, अनाज आदि एक तरफ करने लगते हैं, ऐसे अनेक कार्य कर बैठते हैं, जो अकरणीय हैं। मुनिराज आ रहे हैं तो सहजता से आने दे, अविधि से श्रद्धा को मलिन न करें। वे अपनी समाचारी और मर्यादा के कवच में आयेंगे और जो कुछ शुद्ध, प्रासुक, ऐषणीय, कल्पनीय होगा, ग्रहण कर लेंगे। उनके निमित्त किसी प्रकार का स्वच्छता-सूचक संकेत न करें। (23) गुरुवर के आने का किसी प्रकार का संकेत मिलने पर उनके निमित्त फल सुधारना, पापड सेकना, रोटी उतारना, ताले में पडी चीज निकालना आदि