________________ कर्म के भेद व प्रभेद प्र.313.कर्म से क्या अभिप्राय है? उ. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के द्वारा कार्मण वर्गणा के पुद्गल आकृष्ट होकर आत्मा से क्षीर-नीर एवं लौहपिण्ड- अग्नि की भाँति एकमेक हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहा जाता है। प्र.314.कर्म और कार्मण वर्गणा में क्या अन्तर है? उ. चौदह राजलोक में सर्वत्र पुद्गल भरे हुए हैं। उनमें से समान जाति वाले पुद्गलों को वर्गणा कहते है। यह वर्गणा आठ प्रकार की कही गयी हैं, जिनमें से एक कार्मण वर्गणा भी है। कार्मण वर्गणा के पुद्गल जब आत्मा से संयुक्त होते हैं, तब कर्म और अलग होने पर कार्मण परमाणु कहलाते हैं। प्र.315.कर्म की कितनी अवस्थाएँ कही गयी हैं? उ. दस - 1. बंध - मिथ्यात्व आदि कारणों से कार्मण पुद्गलों का आत्मा से बंधना बंध कहलाता है। 2. उद्वर्तना- अशुभ योग व करण से बंधे हुए कर्मों की स्थिति एवं फल का बढना उद्वर्तना कहलाता है। 3. अपवर्तना- शुभ योग व करण से पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति एवं परिणाम का घटना अपवर्तना कहलाता है। 4. सत्ता- आत्मा से बंधे कर्म फल न देकर जितने समय तक आत्मा के साथ रहते हैं, उसे सत्ता कहते है। 5. उदय- पूर्वबद्ध कर्मों का फल भोगना उदय कहलाता है। 6. उदीरणा- जो कर्म बाद में उदय में आने वाले हैं, उन्हें विशेष पुरूषार्थ से खींचकर उदय में लाकर भोगना उदीरणा कहलाता है। 7. संक्रमण- जिस प्रयत्न से पूर्वबद्ध कर्म निज स्वरूप को छोड़कर अन्य स्वरूप को प्राप्त करता है, उसे संक्रमण कहते है। 8. उपशमन- उदय में आने वाले कर्म को तप, स्वाध्याय के द्वारा रोकने की प्रक्रिया को उपशमन कहते है। 9. निधत्ति- कर्मों का आपस में