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जैन श्रमणियों का बहद इतिहास
अपरिग्रह है और भाषा की समता स्याद्वाद है। अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह और स्याद्वाद जैन श्रमण संस्कृति के चतुर्विध आधार स्तम्भ हैं। 1.5 श्रमण धर्म की विभिन्न शाखाएँ एवं उनमें श्रमणी-संस्था
प्राचीन जैन ग्रंथों में श्रमणों की 5 शाखाओं का उल्लेख मिलता है-(1) निग्गंठ-तीर्थंकर महावीर तथा उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के अनुयायी (2) सक्क अर्थात् शाक्य भगवान बुद्ध के अनुयायी (3) आजीवक-गोशालक मत के अनुयायी (4) तापस (5) गैरिक।
पिछली दो शाखाओं के प्रवर्तकों के नाम प्राप्त नहीं होते। ये दोनों शाखाएँ कालान्तर में वैदिक या हिन्दू धर्म में विलीन हो गई। इन्हें वैदिक धर्म और हिन्दू धर्म में 'मुनि' अथवा 'वैदिक श्रमण' कहा गया है। इनकी सैंकड़ों संप्रदायें तथा उपसंप्रदायें हिन्दू समाज में बनी और बिखरीं। ऋग्वेद से प्रारंभ करके सभी वेद, ब्राह्मण आरण्यक, उपनिषद् तथा पुराणों में इनका वर्णन है। हिंदू धर्म की पूरी संत-परम्परा पर श्रमण विचार और आचार का प्रभाव बहुत स्पष्ट है।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भगवान महावीर की समकालीन पाँच अन्य श्रमण शाखाओं का भी उल्लेख जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में आता है, वे थे-अक्रियावादी, अज्ञानवादी, नियतिवादी, अन्योन्यवादी एवं उच्छेदवादी।
1.5.1 अक्रियावादी
अक्रियावाद के प्ररूपक पूरण काश्यप थे। ये काश्यप गोत्रीय नग्न श्रमण थे। उनकी मान्यता थी - "वस्त्र लज्जा निवारण के लिये धारण किया जाता है। जिसका मूल पाप प्रवृत्ति है, मैं उससे मुक्त हूँ। ‘क्रिया' जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, उससे न पुण्य होता है न पाप।" विद्वानों ने काश्यप पर भगवान महावीर के उपदेशों के प्रभाव की पुष्टि की है।"
1.5.2 अज्ञानवादी
अज्ञानवाद के प्ररूपक संजय वेलट्ठिपुत्र थे, इनको बौद्ध ग्रंथों में मौद्गलायन और सारिपुत्त का गुरु कहा है, वह पार्श्वनाथ की शिष्य-परम्परा का एक जैन मुनि था, जो चारण ऋद्धिधारी था। उसका कहना था - "परलोक है भी और नहीं भी, परलोक न है और न नहीं है। अच्छे-बुरे कर्म का फल है भी और नहीं भी, न है और न नहीं है।" संजय वेलट्ठिपुत्र के वाद को बौद्ध ग्रंथों में अनिश्चिततावाद और जैन आगमों में 'अज्ञानवाद' कहा गया है।
1.5.3 आजीविक मत या नियतिवादी
आजीवक संप्रदाय का मूल स्रोत भी श्रमण परम्परा में निहित है। इनके आचार का वर्णन 'मज्झिमनिकाय' में मिलता है। वे वस्त्र रहित होते थे, हाथों में भोजन करते थे, अपने लिये बनवाया आहार नहीं लेते, मत्स्य, मांस, मदिरा, 11. आचार्य देशभूषण जी, भ. महावीर और उनका तत्त्वदर्शन, अ. 4, पृ. 469-70 12. सूत्रकृतांग 1/6/27; 1/12/1-2 13. मज्झिमनिकाय भाग.1 संदक सुत्तन्त 2/3/6
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