________________ जैनधर्म का उद्भव और विकास : 1 इस अवसर्पिणी काल में तीर्थंकरों से पूर्व हुए कुलकरों को संख्या विविध जैन ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न बतलाई गई है। स्थानांगसूत्र', समवायांगसूत्र', व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, आवश्यकचूर्णि, आवश्यकनियुक्ति और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में जहाँ सात कुलकरों के नाम मिलते हैं, वहीं तिलोयपण्णत्ति, पउमचरियं', महापुराण तथा सिद्धान्त संग्रह आदि में चौदह एवं जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति में पन्द्रह नाम मिलते हैं। तिलोयपण्णत्ति में कुलकर एवं मनु दोनों ही शब्दों का प्रयोग करके हिन्दु संस्कृति एवं जैन संस्कृति के मध्य समन्वय किया गया है।१२ हरिवंशपुराण में कुलकर के नामों एवं उनके विविध कार्यों का भी उल्लेख हुआ है। इन कुलकरों ने कर्मभूमि में सभ्यता के प्रारम्भिक युग में समाज व्यवस्था दी तथा अपने चरित्र एवं आचरण द्वारा अच्छे-बुरे का भेद करना सिखाया तथा दुराचरण हेतु दण्ड व्यवस्था की।४ ग्रन्थकारों ने कहा है कि कुलकर ही तीर्थंकरों से पूर्व मानव संस्कृति के पूर्ण रक्षक थे।५ सठशालाकापुरुष : कुलकरों के पश्चात् जिन महापुरुषों ने कर्मभूमि पर मानव सभ्यता एवं संस्कृति को रक्षा की थी, उन्हें शलाकापुरुष कहा जाता है / शलाका१. स्थानांगवृत्ति, सूत्र 767 2. समवायांगसूत्र, 24 / 160 3. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, 5 / 5 / 6 4. आवश्यकचूर्णि, पत्र 129 5. आवश्यकनियुक्ति, मलयः वृत्ति, गाथा 152, पृष्ठ 154 6. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, 1 / 1 / 142-206 7. तिलोयपण्णत्ति, 4504 8. पउमचरियं, 3150:55 9. महापुराण-जिनसेन, 33229-232 10. सिद्धान्त संग्रह, पृ० 18 11, बम्बद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र , 2 // 35 22. तिलोयपण्णत्ति, 4 / 421-509 13. हरिवंशपुराण, 7 / 122-170 14. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० 1. 35. महापुराण, 31211-232