Book Title: Jain Dharm ke Sampraday
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 18
________________ जैनधर्म का उद्भव और विकास : 7 उपरोक्त दोनों कालों के बारे में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस युग में भाई-बहिन ही दम्पती बनकर सुखोपभोग एवं सन्तनोत्पत्ति करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि इस काल में परिवार तो होता है तथापि सामाजिक दृष्टि से पारिवारिक व्यवस्था नहीं होती है। (3) सुषमा-दुःषमा काल : सुषमा-दुःषमा नामक तीसरे काल में सुख की मात्रा अधिक और दुःख को मात्रा कम मानी गयी है। इस काल में कल्पवृक्षों से पहले की भांति मधुर एवं स्वादिष्ट फल नहीं मिलते हैं और जो मिलते हैं उनसे मनुष्यों का जीवनयापन नहीं हो पाता है। इसलिए मनुष्यों को खेती, पशुपालन, व्यवसाय-व्यापार आदि कर्म करने होते हैं। इस काल में समाज-व्यवस्था की दृष्टि से राज्य अस्तित्व में आता है तथा दण्ड आदि के कुछ नियम बन जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि मनुष्यों को विविध प्राकृतिक परिवर्तनों के अनुरूप जीवनयापन करने की शिक्षा देनेवाले कुलकर इसी काल में उत्पन्न होते हैं / इस काल के अन्तिम चरण में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म होना माना गया है। सुषमा काल का उल्लेख करते समय हमने बतलाया था कि उस काल तक भाई-बहिन ही दम्पतो बनकर जोवन व्यतीत करते थे, किन्तु ऋषभदेव ने ही सर्वप्रथम भाई-बहिन के दम्पती बनने की इस प्रथा को समाप्त किया और उन्होंने स्वयं एक मृत यौगलिक पुरुष को सहोदरा सुनन्दा से विवाहकर नई विवाह पद्धति को प्रारम्भ किया। इसी प्रकार अपने पुत्रों का विवाह भी अपनी पुत्रियों से नहीं करके विवाह-प्रथा का निर्माण किया। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि इस काल में सुख के साथ-साथ आंशिक दुःख भी प्रारम्भ हो गए थे / साथ ही सामाजिक व्यवस्था का विकास भी इसी काल में हुआ था। (4) दुःषमा-सुषमा काल: दुःषमा-सुषमा नामक चतुर्थ काल में कल्पवक्षों का सर्वथा अभाव हो जाता है। इस युग में मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खेती, पशुपालन एवं व्यवसाय आदि पर ही पूर्णतः निर्भर रहना पड़ता है। रोग-शोक, आधि-व्याधि, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय आदि में भी पूर्व की अपेक्षा अब वृद्धि हो जाती है। मनुष्य चोरी-छिपे अनैतिक कार्य एवं पापकर्म करने लग जाते हैं। उनके परिष्कार के लिये धार्मिक

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