________________ जैनधर्म का उद्भव और विकास : 5 इस प्रकार हम देखते हैं कि यति एवं व्रात्य-ये दोनों ही शब्द प्राचीन समय के वैदिक साहित्य में बहु-प्रचलित रहे हैं / इनसे प्राचीनतम काल में भी श्रमण संस्कृति के अस्तित्व का संकेत मिलता है। इस दृष्टि से जैनधर्म को भी पर्याप्त प्राचीन धर्म माना जा सकता है / तीथंकरों से पूर्व की स्थिति : जैनधर्म में तीर्थंकरों का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। तीर्थंकरों के जन्म से पूर्व समस्त सृष्टि भोग भूमि के रूप में प्रसिद्ध थी। उस समय पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था नहीं थी और नागरिक सभ्यता का विकास नहीं हो पाया था। उस समय जीवन-यापन के लिए व्यक्ति पशुपालन, खेती अथवा व्यवसाय आदि भी नहीं करते थे। उनके भोजन आदि की पूर्ति वृक्षों या वनोपज से ही हो जाती थी। परम्परा की दृष्टि से यह कहा गया है कि कल्पवृक्ष ही उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे। धीरे-धीरे मानव सभ्यता का विकास हुआ और इसके साथ ही सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवस्था की स्थापना हुई तथा विविध कलाओं का जन्म हुआ, जिससे यह भोगभूमि कर्मभूमि बन गयी। सभ्यता के इस क्रमिक विकास को कालचक्र की अवधारणा के द्वारा समझा जा सकता है। कालचक्र: ___ जैन परम्परानुसार सम्पूर्ण कालचक्र को दो भागों में विभक्त किया गया है-(१) अवसर्पिणी काल और (2) उत्सर्पिणी काल। प्रत्येक काल को पुनः छह भागों में विभाजित किया गया है। अवपिणी काल: (1) सुषमा-सुषमा काल . . (2) सुषमा काल .(3) सुषमा-दुःषमा काल (4) दुःषमा-सुषमा काल (5) दुःषमा काल (6) दुःषमा-दुःषमा काल 1. समवायांगसूत्र, 10 / 66 2. (क) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र, 2 / 24 (ख) तिलोयपण्णत्ति, 4 / 315-319 (ग) तित्योगाली पइग्मयं, गाथा 16-14