Book Title: Jain Dharm ke Sampraday
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 14
________________ जैनधर्म का उद्भव और विकास : 3 वस्तुतः पार्श्वनाथ एवं महावीर के पूर्व सम्पूर्ण श्रमणधारा आहेत परम्परा के रूप में ही उल्लिखित होती थी और इसमें न केवल जैन. बौद्ध, आजीवक आदि परम्परायें सम्मिलित होती थीं, अपितु औपनिषदिकऋषि परम्परा और सांख्य-योग की दर्शनधारा एवं साधना परम्परा भी इसी में समाहित थी। यह अलग बात है कि औपनिषदिक धारा एवं सांख्य-योग परम्परा के बृहद् हिन्दूधर्म में समाहित कर लिये जाने एवं बौद्ध तथा आजीवक परम्पराओं के इस देश में मत प्रायः हो जाने पर जैन परम्परा को पुनः पूर्व मध्ययुग में आर्हत धर्म नाम प्राप्त हो गया। किन्तु वेदों में जिस आर्हत परम्परा की चर्चा है, वह एक प्राचीन एवं व्यापक परम्परा है। ऋषिभाषित नामक जैन ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, अरुण, उद्दालक, अंगिरस, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों का अहत् ऋषि के रूप में उल्लेख है। साथ ही सारिपुत्र, महाकश्यप आदि बौद्ध श्रमणों एवं मंखलोगोशाल, संजय आदि अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों का भी अर्हत् ऋषि के रूप में उल्लेख हुआ है।' बौद्ध परम्परा में बुद्ध के साथ-साथ अर्हत् अवस्था को प्राप्त अन्य श्रमणों को अर्हत् कहा जाता था। प्राचीन काल में धर्म वस्तुतः निवृत्तिप्रधान सम्पूर्ण श्रमणधारा का ही वाचक रहा है। वेदों में जैन धर्म की प्राचीनता का निर्देश करने वाले जो सन्दर्भ उपलब्ध हैं उनमें अर्हत् एवं आर्हत के साथ-साथ यति, व्रात्य आदि के भी उल्लेख मिलते हैं, वैदिक साहित्य में उल्लिखित यति एवं व्रात्य श्रमण परम्परा या जैन परम्परा से ' ही संबंधित प्रतीत होते हैं। यति एवं व्रात्य : ऋग्वेद में अर्हतों के अतिरिक्त यतियों एवं व्रात्यों के भो उल्लेख मिलते हैं, किन्तु इनका संबंध किस परम्परा से है, यह प्रश्न विचारणीय है। डा. हीरालाल जैन के अनुसार 'यति एवं व्रात्य ब्राह्मण परम्परा के (ग) निगंठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंति-जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, लेख क्रमांक 1 उद्धृत-प्रो० सागरमल जैन-ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें : एक अध्ययन, श्रमण, अप्रैल-जून 1993 - .. 1. इसिभासियाइंसुत्ताई-प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर 1988 दृष्टव्य है-भूमिका, प्रो० सागरमल जैन, पृष्ठ 19-20

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