Book Title: Jain Dharm Siddhant Author(s): Shivvratlal Varmman Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur View full book textPage 9
________________ (=) हुए उत्तम ब्रह्मचर्य को पालते है - साधु जन इस दशलक्षण धर्म के आदी है गृहस्थ जैसे पूर्ण श्रहिसा न पाल कर शक्ति के अनुसार उसे पालते, निरर्थक हिसा से बचते -प्रयोजन भूत हिसा के बिना निर्वाह नहीं कर पाते वैसे वे उत्तम प्रकार से इन १० श्रमों को पूर्ण पालने की शक्ति न रखते हुए इन के महत्व का ज्ञान तथा श्रद्धान यथार्थ रखने है परन्तु व्यवहारसे यथाशक्य इनका श्राचरण करते है । जैसे निर्वल शस्य पागल पर क्रोध नहीं करते परन्तु दुष्ट बदमाश पर उनकी दुष्टता छुड़ाने के हतु क्रोध करते व दण्ड देते हैं जब आधीन हो जाता है तो उसके साथ क्षमा व प्रेम सं घर्ताव करते हैं, यो तो मान नहीं करते परन्तु यदि कोई सुट श्राचार्य के साथ अपमान करें तो मान सम्मान के रक्षार्थउल को स्वाधीन करते, यो तो माया नहीं करते परन्तु किसी शुभ संपादनार्थ व शुके निवारणार्थ मायाचार से भी काम लेते, यों तो असत्य नहीं बोलते परन्तु किसी पर होते हुये घात व प्रत्याचार व अन्याय के दमनार्थ यदि कुछ ग्रासत्य से भी काम लेना पढ़े तो लेते, यां तो मन वचन काय से पवित्र रहते परन्तु गृहारम्भ सम्बन्धी लोभ करते हुये व गृह प्रपञ्च में उलझते हुए अपवित्र हो जाने, वो तो संयम का आदर करते परन्तु शक्ति न होने पर न्यायपूर्वक इन्द्रियभोग करते व आरम्भ करते,Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 99