Book Title: Jain Dharm Siddhant
Author(s): Shivvratlal Varmman
Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur

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Page 8
________________ को उल्लंघन कर भोजन पान नहीं चाहते हुए उत्तम अर्जिवका वर्ताव करते हैं। न कभी कोई असन्यभाव विचारते न कहते सत्य पर डटे रहते-यदि कोई प्राणों को भी लेवे तो भी सत्य को नहीं छोड़ते यहो उनका उत्तम लत्य-धर्म है । साधु इन्द्रिय विजयी होने हुर क्षणिक पदाथों का लोस न करते हुए उत्तम शौच धर्मों को पालते हुए परमपवित्र रहते हैं। जिनका आत्मा पवित्र है उनके लिये जानादिनी बरत नहीं । उनको आत्मध्यान से शरीर निरोगी व पवित्र हो जाता है । मन व इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार रखते हुए साबु इन्द्रिय संयम तथा विचार के साथ वर्तते हुए व पृथ्वी आदि पटकाय के जीना के प्राणों की रक्षा करते हुए उत्तन संयम पालते है । धर्मध्यन व गुल ध्यान की अग्नि जला कर अपने जीव को तणेते है, कर्माजन हटाते हैं-इच्छानिरोध के अर्थ अनशन, ऊनोदर रस त्यागादि तप करते हैं। यही उत्तम तप है । परमो मारी साधु अपना सर्वस्व नर्व जीनों के हितार्थ जानते हुए जीवमात्र के रक्षक होते हुए अभयदान देते व लप्ततत्त्वों का ज्ञान देते परम दान पान करते हुए उत्तम त्यागधर्म के अधिनारी हैं-मैं हूं लो हूं-मेरा अजोव से व जीवत विकारो से कोई सम्बन्ध नहीं-मैं ममत्त्व निःपरिग्रही परमनिर्गन्य हूँ यही भाव उत्तम प्राकिंचिन् धर्म है। वेत्रात्म ज्ञानी साधु निज ब्रह्म स्वरूप प्रात्मा में चर्या करते हुए श्रात्मानन्द के विरोधी कुशीतजवित विकार को पूर्ण पने त्यागते

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