Book Title: Jain Dharm Siddhant Author(s): Shivvratlal Varmman Publisher: Veer Karyalaya Bijnaur View full book textPage 6
________________ (ख) नहीं होते। इस लिये यह संसार जीव और अजीव का गठजोड़ा है। इन दोनों का बन्धन ही संसार है, इन ही दोनों का वियोग मुक्ति है। जब तक यह जीव अजीव पर आसक्त बना रहता है व उसकी मनोहरता पर लुभाया रहता है, तब तक इसको मुक्ति का मार्ग नहीं मिलताहै। जव यह जीव अपने भीतर भरे हुए ऐश्वर्य को या ईश्वरपनको या अनन्तज्ञान दर्शन सुख वीर्य की शुद्धि शक्तियों को पहचानता है और उन पर विश्वास लाता है तब इस के भाव में अजीव की चंचल अवस्थाये हेय भासती है व चंचल अजीव के प्रसङ्ग से होनेवाला क्षणिक सुख मात्र काल्पनिक और असंतोषकारी तथा प्राकुलताबर्द्धक फलकने लगता है। यही जैनियों के रत्नत्रयमयी मोक्षमार्ग का पहला __ सम्यग्दर्शन रूपी रत्न है-इस रत्न के साथ जितना जीव व अजीव पदार्थों का विशेष ज्ञान प्राप्त करता जाता है वह सम्यग्ज्ञान रूपी रत्न है। इस श्रद्धा व शान सहित जहां अशांति के मेटने को व शांति के पाने का आचरण है वही सम्यग्चारित्र रूपी रत्न है-यही अभ्यास अजीव की संगति से जीव को हटाता हुआ एक दिन अजीव से छुड़ा कर उसे मात्र एक केवलं जीव या अहंत या तीर्थकर या परमात्मा रूप रहने देता -जब वह शुद्ध जीव अनन्तकाल तक निजानन्द का विलाल करता हुआ परम कृतकृत्य व सर्वज्ञ रूप बना रहता है। इसीPage Navigation
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