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जैन दर्शन में प्रमाण मोमांसा
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अभिमत को 'अपरीक्ष्य दृष्ट' कहा गया है १९ | " सत्-असत् की परीक्षा किये बिना अपने दर्शन की श्लाघा और दूसरे दर्शन की गर्हा कर स्वयं को विद्वान् समझने वाले संसार से मुक्ति नही पाते " इसलिए जैन परीक्षा पद्धति का यह प्रधान पाठ रहा है कि "स्व पक्ष - सिद्धि और पर पक्ष की असिद्धि करते समय आत्म-समाधि वाले मुनि को 'बहुगुण प्रकल्प' के सिद्धान्त को नही भूलना चाहिए । प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन अथवा मध्यस्थ वचन (निष्पक्ष वचन ) ये बहु गुण का सर्जन करने वाले हैं। वादकाल में अथवा साधारण वार्तालाप में मुनि ऐसे हेतु आदि का प्रयोग करे, जिससे विरोध न बढ़े - हिंसा न बढ़े २ १ १ "
वादकाल में हिंसा से बचाव करते हुए भी तत्त्व - परीक्षा के लिए प्रस्तुत रहते, तव उन्हे प्रमाण -मीमांसा की अपेक्षा होती, यह स्वयं गम्य होता है । जैन - साहित्य दो भागों में विभक्त है - ( १ ) श्रागम और ( २ ) ग्रन्थ | आगम के दो विभाग हैं —— अंग और अंग अतिरिक्त उपांग |
स्वतः प्रमाण है | श्रंग- अतिरिक्त साहित्य वही प्रमाण होता है, जो अंग साहित्य का विसंवादी नही होता ।
केवली, अवधि ज्ञानी, मनः पर्यव ज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वघर और नवपूर्व घर ( दशवें पूर्व की तीसरी आचार-वस्तु सहित ) ये आगम कहलाते हैं । उपचार से इनकी रचना को भी 'श्रागम' कहा जाता है २४ |
अन्य स्थविर या आचायो की रचनाओ की संज्ञा 'ग्रन्थ' है। इनकी प्रामाणिकता का आधार आगम की अविसंवादकता है।
अंग- साहित्य की रचना भगवान् महावीर की उपस्थिति में हुई । भगवान् के निर्वाण के बाद इनका लघु-करण और कई आगमो का संकलन और संग्रहण हुआ । इनका अन्तिम स्थिर रूप विक्रम की ५ वी शताब्दी से है ।
आगम- साहित्य के आधार पर प्रमाण शास्त्र की रूप-रेखा इस प्रकार बनती है—