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आचार्य सम्राट देवेन्द्रमुनिजी म0 का शुभ संदेश भारतीय साहित्य का गहराई से अनुशीलन, परिशीलन करने पर हमें स्पष्ट परिज्ञात होता है कि वहाँ पर 'तत्त्व' शब्द के संबंध में विशद रूप में चिन्तन किया गया है ।
जैन दर्शन में 'तत्त्व' के अर्थ में तत्त्व, तत्त्वार्थ, अर्थ, पदार्थ, द्रव्य, सत्, सत्त्व आदि विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है । ये शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची भी रहे हैं । जैन (धर्म) दर्शन में जो तत्त्व है, वह सत् है, और जो सत् है, वह द्रव्य है ।
भगवती, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन आदि आगमों में तत्त्वों की संख्या नव बतलाई गई है । समयाभाव के कारण हम उन सभी पर यहाँ विचार न कर यह बताना चाहेंगे कि 'तत्त्व' जैन दर्शन का मेरुदण्ड है ।
मुझे यह आशा है कि जैन-जगत् की बहुआयामी प्रतिभा की धनी साध्वी रत्न श्री उज्ज्वलकुमारीजी की सुशिष्या साध्वी श्री धर्मशीलाजी ने 'नवतत्त्व' पर जो शोध-प्रबंध लिखा है, वह जन-जन के लिए उपयोगी सिद्ध होगा । इसमें महासतीजी धर्मशीलाजी का कठिन श्रम मुखरित है । मुझे श्रमण संघ की ऐसी परमविदुषी साध्वीरत्न पर सात्विक गर्व है और मेरी यह मंगल मनीषा है कि वे अपनी तेजस्वी प्रतिभा से अन्य दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विषयों पर जम कर लिखें । आशा है उनका यह शोध -प्रबन्ध सबके लिए चिन्तन की सामग्री प्रस्तुत करेगा ।
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