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वरन् आत्मा के चैतन्य की विशुद्धि का रणकार उनके अंतर से आता है । आपश्रीजी धर्म के तत्त्व को; शब्दार्थ - भावार्थ और गूढ़ार्थ को दृष्टान्तों द्वारा इस प्रकार समझा देती हैं कि श्रोतावृन्द उनकी वाणी से मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । वे अपूर्व शान्ति से धर्मामृत धारा का रसपान करते हैं ।
पू० डॉ० धर्मशीलाजी महासतीजी ने आज के युग की आवश्यकता को ध्यान में रखकर जैन धर्म की सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'प्रतिक्रमण सूत्र' का अंग्रेजी में अनुवाद किया है । गुरुणीमैया पू० डॉ० धर्मशीलाजी म० के चरणों में शत शत वंदन ।
"आभा का कागज करूँ, लेखनी करूं वनराय,
समुद्र की स्याही करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय । ”
आपश्रीजी की शिष्याएँ महासतीजी चारित्रशीला, विवेकशीला, पुण्यशीला, भक्तिशीला ।
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