________________ प्रस्तावना भारतीय संस्कृति का उच्चतम ध्येय मोक्ष रहा है। भगवान् महावीर ने कहा है कि साधन का परम लक्ष्य मोक्ष है- परमो से मोक्खो (दशवैकालिकसूत्र 1/2) / महर्षि कपिल ने सांख्यसूत्र में लिखा है कि-अथ त्रिविधदुःखस्यात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थ: अर्थात् तीनों प्रकार के दुःखों से आत्यन्तिकनिवृत्ति ही परमपुरुषार्थ-मोक्ष है। आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को मोक्ष का मार्ग (उपाय) बतलाया हैसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः तत्त्वार्थसूत्र 1/1) कहने का अभिप्राय यही है कि जब साधक के अन्त:करण में दृढ़विश्वास जाग्रति होता है तब उसका ज्ञान भी परिपक्व और विशुद्ध हो जाता है / चारित्र विशुद्धि ही वस्तुतः मोक्ष है। __ मानव जब प्रमत्त अवस्था को छोड़कर अप्रमत्त अवस्था की ओर बढ़ता है सब उसका श्रद्धान विशुद्ध हो जाता है फिर वह आत्मा और संसार के स्वरूप के विषय में निश्चयनय की दृष्टि से विचार करता है, उसके फल स्वरूप जो उपलब्धि होती है, वही सम्यक् ज्ञान है / लब्धज्ञान को ज्ञानी जब आचरण में उतारता है तब यह ही सम्यक्चरित्र कहलाता है। इन्ही यथार्थ श्रद्धान-ज्ञानं एवं आचरण विशुद्ध त्रिवेणी का ही अपर नाम मुक्ति है जिन्होंने इसे पा लिया और जो इसकी प्राप्ति के लिए निरन्तर तत्पर हैं, उनके प्रति अखण्ड विश्वास, उनके ज्ञान और पावन आचरण का अनुकरण ही साधनामन्त्र हो जाता है। ऐसा ही साधना मन्त्र है - पञ्च परमेष्ठी महामन्त्र णमोकार / जैनदर्शन में इस महामन्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके विषय में विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है कि इस मन्त्र की आराधना से इस लोक में अर्थ, काम, आरोग्य और अभिरति- सुख साधनों की प्राप्ति होती है तथा परलोक में उत्तम कुल स्वर्ग एवं सिद्धत्व लाभ होता है इह लोए अत्यकामां आरोग्य अभिरई य निप्पत्ति / सिद्धों य सग्ग सुकुल पज्जाई य परलोए / इसीलिए जैन आगम ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर इसका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है / जैन आगम ग्रन्थों में भगवतीसूत्र प्रमुख माना जाता है, उसके मंगलाचरण के रूप में इस महामन्त्र का स्मरण किया गया है। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने पंचपरमेष्ठी महामन्त्र को सर्वसूत्रान्तर्गत मानकर विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है कि -