________________ अरहन्ता असरीरा आइरिया तह उवज्झाया मुणिणो। पढमवरवरणिप्पणो ओंकारो पंच परमेट्ठी / अर्थात् : अरहन्तों का आद्यक्षर - - अ : अशरीरी सिद्धों का अक्षर - - अ (अ + अ - आ) (अथवा आद्य अक्षर शून्य 0 - अ + 0 = अ) : आचार्यों का आद्यक्षर - - आ (आ + अ वा आ = आ) : उपाध्यायों का आद्यक्षर - - उ ( आ + उ - ओ) और : मंगलकारक साधुओं का आद्यक्षर - - म् ( ओ + म्- ओम्) अतएव अरहन्त ही सर्वोपरि श्रेष्ठ होने से वही ओंकार हैं। यही सादि अनन्त पंचाक्षरात्मक ओम् जगत् के समस्त प्राणियों को सुखोत्पादक एवं शांतिप्रदायक होने से शंकर है, परमगति-सुगति (मोक्ष) कारक होने से सुगत है, परमैश्वर्य सम्पत्रक होने से ईश्वर और आत्मभिन्न पदार्थों में स्वामित्व-भावनाविरहित होने से वह ही निराकार, निरंजन, आनंदघन ब्रह्म है, जो सम्यक्त्वादि गुणोत एवं कर्माष्टक विनिर्मुक्त अनादिमूलमंत्र ओम् अहँ परब्रह्म परमेष्ठी का वाचक और सिद्ध समूह का सुन्दर बीजाक्षर है - अहमित्यक्षरं ब्रह्म वाचकं परमेष्ठिनः सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वत: प्रणमाम्यहम् / कर्माष्टक-विनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मी-निकेतनम् ___सम्यक्त्वादिगुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहम् // प्रसार करते हैं। यहां प्रश्न यह उठता है कि इतिहास सिद्धान्त और श्रद्धा के साथ अपना यह उक्त परब्रह्म परमतत्त्व जैनों की एकमात्र विशद एवं परमविशद्ध आत्मा- . परमात्मा से भिन्न नहीं / यह अनन्त सुख ज्ञान-दर्शन की प्रतिष्ठा एवं शरण, पवित्रात्मा परमेष्ठी सांख्यों की चित्तिशक्ति है और वेदान्तियों का यही अनिर्वचनीय निर्गुण ब्रह्म भी है जो ऐन्द्रिय संवेदना से परे है, जिसके आगे संसार का समस्त भौतिक सुख व्यर्थ है। यह परमतत्त्वज्ञान शुद्ध केवलज्ञान है, कैवल्य स्वरूप है। यही असीम अखण्ड यथार्थसत्य है, एक सच्चा प्रकाश है, जिसे मनोयोग से पाना है। जिस परमतत्त्व का साक्षात्कार करते ही साधक सम्पूर्ण पापों से छूट कर स्वयं ब्रह्मवित् हो जाता है - 8. णाणी सिव परमेट्ठ सव्वण्णू विण्ह चदुमुहो बुद्धो / - भावपाहुड, गाथा 149 9. अप्पा वि य परमप्पो / वही