________________ स्वर अ और उ तथा एक व्यंजन म् है और संस्कृत कोश ग्रंथ वाचस्पत्यम् में जिस अव्ययपद ओम् को प्रणव, आरम्भ एवं स्वीकार अर्थ में प्रयुक्त बतलाया गया है वह मंगल, शुभ और ज्ञेय ब्रह्म का भी वाचक माना गया है जिसका विग्रह - . 'अश्च उश्च मश्च तेषां समाहार: ' है। इन्हीं अ,उ एवं म् वर्णों की शक्ति ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव में निहित होती है", ऐसा माना जाता है। श्रुति, स्मृति एवं पुराण ग्रंथों में वर्णित प्रणवपद वाच्य ओम् अक्षर परमतत्त्व ईश्वर-ब्रह्म का वाचक है। गीता के अनुसार परमतत्त्व ब्रह्म का स्मरण तथा चिन्तन ऊं, तत् तथा सत् इन त्रिविध पदों से ही किया जा सकता है / इसी कारण यहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो प्राणी ब्रह्मरूप एकाक्षर ओम् का विशुद्ध उच्चारण करता हुआ स्वदेह का परित्याग करता है वह नियम से परमगति, परमधाम (मुक्ति) को धारण करता है : ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् / / य: प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम् // नि: संदेह परमपदरुप ओम् ही जगत् में श्रेष्ठ एवं श्रेयस्कर है। जैनदर्शन में ओम् जैन भी सर्वमान्य अंगीकृत महामन्त्र, पंच नमस्कारमन्त्र नवकार को ओंकार स्वरूप मानते हैं। यह अणिमा-लघिमादि सिद्धिप्रद एवं अपराजित महान् मन्त्र है - णमो अरिहन्ताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं / णमो उवज्कायाणां णमो लोए सब्बसाहूणं // यहां तीनों लोकों, तीनों कालों में विद्यमान सम्पूर्ण पदार्थों को एक साथ प्रकाशन में सामर्थ्य रुप महिमा से युक्त अरिहन्त केवली भगवान् प्रमुख होते हैं, यही अनन्त गुणों से सम्पन्न हैं, अखण्ड चैतन्यगुणयुक्त होने से एकामात्र, निखिल वाङ्मय के निमित्तभूत आद्यक्षर ओंकाररूप भी वही है / आगम में कहा भी है : 4. वाचस्पत्यम् खण्ड 1, पृ० 1558 5. अकारं ब्रह्माणं उकारं विष्णु मकारं रूद्रम् / योगसिद्धान्तचन्द्रिका, पृ० 26 6. ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध स्मृतः / गीता 7. वही,८/१३